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________________ गा० २३३ ] ___$३०७ एतेनात्यन्तिकानन्तसुखपरिणामोऽप्यस्य व्याख्यातो वेदितव्यः । कस्मात् ? अनन्तज्ञानदर्शनवीर्योपबृंहितसामर्थ्यस्य विमोहस्य ज्ञानवराग्यातिशयपरमकाष्ठामारूढस्य परमनिर्वाणलक्षणस्य सुखस्यात्यंतिकत्वेन प्रादुर्भावोपलंभात् । न च ज्ञानवैराग्यातिशयजनितवीतरागसुखादन्यदेव किंचित्सुखं नामास्ति, सरागसुखस्य न्यायनिष्ठुरं विचार्यमाणस्यैकान्ततो दुःखरूपत्वादिति । तथा चोक्तं सपरं बाहासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव सदा ॥ २ ॥ विरागहेतुप्रभवं न घेत्सुखं, न नाम किंचित्तदिति स्थिता वयम् । स चेनिमित्तं स्फुटमेव नास्ति तत् त्वदन्यतः सत्त्वयि येन केवलम् ॥३॥ इति । 5 ३०८ तस्मादनन्तज्ञानदर्शनवीर्यविरतिप्रधानमनन्तसुखमनुपरतवृत्ति-निरतिशयमात्मोपादानसिद्धमतीन्द्रियं निष्प्रतिद्वन्द्वमस्येति सिद्धम् । एतेनासद्वद्योदयेसद्भावात्सयोगकेवलिन्यनन्तसुखाभावं तदनुपातिनी च कवलाहारवृत्तिमवधारयन् वादी ३०७ इस कथनसे आत्यन्तिक अनन्त सुखपरिणाम भी इस भगवान्के व्याख्यान किया गया जानना चाहिये, क्योंकि जिसकी अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्यसे सामर्थ्य वृद्धिको प्राप्त हुई है, जो मोहरहित है, जो ज्ञान और वैराग्य की अतिशय परमकाष्ठा पर अधिरूढ़ है, जिसका परम निर्वाणरूपी वस्त्र है ऐसे सुखको आत्यन्तिकरूपसे उत्पत्ति उपलब्ध होती है। किन्तु ज्ञान और वैराग्यके अतिशयसे उत्पन्न हुए सुखसे अन्य सुख नामकी कोई वस्तु नहीं हो है, क्योंकि जो सरागसुख है वह न्यायपूर्वक निष्ठुरतासे विचार किया गया एकान्तसे दुःखरूप ही है। उसी प्रकार कहा भी है __ जो इन्द्रियोंके निमित्तसे प्राप्त होनेवाला सुख है वह पराश्रित है, बाधासहित है, बीच-बीचमें छूट जाने वाला है, बन्धका कारण है और विषम है, वास्तवमें वह सदाकाल दुःखस्वरूप ही है ॥२॥ ___जो सुख विरागभावको निमित्त कर नहीं उत्पन्न हुआ है वह कुछ भी नहीं है ऐसा हम निश्चय करके स्थित हैं। यदि वह निमित्त है तो आपके सिवाय वह स्पष्टरूपसे अन्य नहीं ही है जिससे कि आपमें ही केवल निमित्तरूपसे अस्तित्व है ॥३॥ ६३०८ इसलिये जिसमें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तविरतिकी प्रधानता है जो अनुपरत वृत्तिवाला है; निरतिशय है, स्वभावभूत आत्माको उपादानकरके जो सिद्ध होता है, अतीन्द्रिय है और जो द्वन्द्वभावसे रहित है वह अनन्तसुख है। इससे असातावेदनीयके उदयका सद्भाव होनेसे संयोगकेवली भगवान्में अनन्तसुखाभाव और उसके साथ होनेवाली कवलाहारवृत्तिका निश्चय करनेवाला वादो निराकृत हो गया है, क्योंकि उसमें उस (असातावेदनीय) का १. आ० प्रती एतेन सद्वेद्योदय इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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