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________________ अजोगकेवलो] १८१ $ ३८८ किट्टीवेदगपढमसमयप्पहुडि समए समए किट्टीणमसंखेज्जदिमागमसंखेज्जगुणाए सेढीए खवेदण णासेमाणो सजोगिगुणट्ठाणचरिमसमए किट्टीणमसंखेज्जे भागे विणासेदि, तत्तो पर जोगपवुत्तीए अच्चंतुच्छेददंसणादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चओ। ___३८९ संपहि णामागोदवेदणीयाणं चरिमट्ठिदिखंडयमागाएंतो जेत्तियसजोगिअद्धा सेसमजोगिकालो च सव्वो, एत्तियमेतद्विदीओ मोत्तूण गुणसेढिसीसएण सह उवरिमसव्वद्विदीओ आगाएदि। ताघे चेव पदेसग्गमोकट्टियण उदये थोवं देदि । से काले असंखेज्जगुणं, एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छइ जाव द्विदिखंडयजहण्णहिदीदो हेडिमाणंतरहिदि त्ति । ६ ३९० संपहि एदं चेव गुणसेढीसीसयं जादं । इमादो गुणसेढीसीसयादो डिदिखंडयस्य जा जहण्णद्विदी तिस्से असंखेज्जगुणं देदि। तत्तो उवरिमाणंतरट्टिदिप्पहुडि विसेसहीणं णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव चिराण गुणसेढिसीसयं ति । पुणो चिराणादो गुणसेढिसीसयादो उवरिमाणंतरविदीए असंखेज्जगुणहीणं देदि । तदो उवरि सम्वत्थ विसेसहीणं संछुहदि । एत्तो प्पहुडि गलिदसेसगुणसेढी च जायदे । एवं णेदव्वं जाव चरिमद्विदिखंडयदुचरिमफालि त्ति । ६३८८ कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर समय-समयमें कृष्टियोंके असंख्यातवें भागका असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे क्षय करके नाश करता हुआ सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें कुष्टियोंके असंख्यात बहुभागका नाश करता है, क्योंकि उसके बाद योगप्रवृत्तिका अत्यन्त उच्छेद देखा जाता है इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । $ ३८९ अब नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ जितना सयोगीकाल शेष है और सब अयोगीकाल है तत्प्रमाण स्थितियोंको छोड़कर गुणश्रेणिशीर्षकके साथ उपरिम सब स्थितियोंको ग्रहण करता है । उसी समय प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके उदयमें अल्प प्रदेशपुंजको देता है, अनन्तर समयमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ स्थितिकाण्डकको जघन्य स्थितिसे अधस्तन अनन्तर स्थितिके प्राप्त होने तक जाता है। ६३ • अब यही गुणश्रेणिशीर्ष हो गया । इस गुणश्रेणिशीर्षसे स्थितिकाण्डककी जो जघन्य स्थिति है उसमें असंख्यातगुणा देता है । उससे उपरिम अनन्तर स्थितिसे लेकर विशेष हीन प्रदेशपूंजका निक्षेप करता हुआ पूरानी गुणश्रेणिशीर्ष तक निक्षेप करता जाता है। पूनः पुराने गुणशीर्षसे लेकर उपरिम अनन्तर स्थितिमें असंख्यात गुणहीन प्रदेशपुंज देता है । उससे आगे सर्वत्र विशेषहीन प्रदेशपुंज निक्षेप करता है। यहाँसे लेकर गलितशेष गुणश्रेणि हो जाती है। इस प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डकको द्विचरमफालि हो जाना चाहिये । २४
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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