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________________ १८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पच्छिमखंध-अत्याहियार किंचिद् व्याहन्यते, चिन्ताहेतुत्वेन भूतपूर्वत्वाच्चिन्ता योगः, तस्यैकाग्रभावेन निरोधनमेकाग्रचिन्तानिरोध इति व्याख्यानसमाश्रयणाद्वा न कश्चिद्दोषः । तथा चोक्तं अंतोमुहुत्तमद्धं चिंतावस्थाणमेयवत्थुम्मि । छदुमत्थाणं ज्माणं जोगणिरोधो जिणाणं तु ॥१॥ ६ ३८७ तस्मात्सूक्तं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसंज्ञितं परमशक्लध्यानमेवं लक्षणमस्मिअवस्थांतरे योगनिरोधकेवली कर्मादानसामर्थ्य निरन्वयनिरोधार्थ ध्यायतीति । एवं ध्यायतोऽस्य परमर्षेः परभशुक्लध्यानाग्निना प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरामनुपालयतः स्थित्यनुभागकांडकानि च यथाक्रमं निपातयतो योगशक्ति क्रमेण हायमाना सयोगकेवलिगुणस्थानचरिमसमये निमूलतः प्रणश्यतीत्येतत्प्रतिपादयितुकामः सूत्रमुत्तरं पठति-- * किट्टीणं चरिमसमये असंखेज्जे भागे णासेदि । समाधान--यह कहना सत्य हैं, क्योंकि जिन्होंने समस्त पदार्थोंका साक्षात्कार किया है और जो क्रमरहित उपयोगसे परिणत हैं ऐसे सर्वज्ञदेवके एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षण ध्यान नहीं बन सकता, क्योंकि यह अभाष्ट है। किन्तु योगके निरोधमात्रसे होनेवाले कर्मास्रवके निरोधलक्षण ध्यानफलकी प्रवृत्तिको देखकर उस प्रकारके उपचारको कल्पना की है, इसलिये कुछ भी हानि नहीं है । अथवा चिन्ताका हेतु होनेसे भूतपूर्वपनेकी अपेक्षा चिन्ताका नाम योग है, उसके एकाग्रपनेसे निरोध करना एकाग्रचिन्तानिरोध है। इस प्रकारके व्याख्यानका आश्रय करनेसे यहां ध्यान स्वीकार किया है, इसलिये कोई दोष नहीं है । उस प्रकार कहा भी है ___ * छद्मस्थोंका एक वस्तुमें अन्तम हूत कालतक चिन्ताका अवस्थान होना ध्यान है, परन्तु केवली जिनोंका योगका निरोध करना ही ध्यान है। ३८. इसलिये ठीक कहा है कि योगका निरोध करनेवाले केवली भगवान् कर्मके ग्रहणकी सामर्थ्यका निरन्वय निरोध करनेकेलिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती संज्ञक परम शुक्लध्यान ऐसे लक्षणवाले ध्यानको ध्याते हैं। इस प्रकार ध्यान करनेवाले, परम शुक्लध्यानरूप अग्निकेद्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मनिर्जराका पालन करनेवाले तथा स्थितिकाण्डकका और अनुभागकाण्डकका क्रमसे पतन करनेवाले इस परम ऋषिके योगशक्ति क्रमसे हीन होती हुई सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें पूरी तरहसे नष्ट होती है। इस प्रकार इस बातके प्रतिपादन करनेको इच्छासे आगेके सूत्रको कहते हैं * कृष्टिवेदक सयोगिकेवली जीव कृष्टियोंके अन्तिम समयमें असंख्यात बहुभागका नाश करता है। १.प्रेसकापीप्रती असंखेज्जा इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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