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________________ १७९ सयोगिझाण ] भण्णमाणसुत्ते परिप्फुडमेवेदस्सत्थविसेसस्स पडिबद्धत्तदंसणादो । एवमंतोमुहुत्तमेत्तकालं किट्टीगदजोगमणुहवंतस्स सुहुमयरकायजोगे वट्टमाणस्स सजोगिकेवलिणो तदवत्थाए झाणपरिणामो केरिसो होदि त्ति आसंकाए णिरारेगीकरणमुत्तरसुत्तारंभो * सुहुमकिरियापडिवादिशाणं झायदि । $३८६ सूक्ष्मक्रियायोगो यस्मिस्तत्सूक्ष्मनियं, न प्रतिपततीत्येवं शीलमप्रतिपाति, सूक्ष्मतरकाययोगावष्टम्भविजम्भितत्वात् सूक्ष्मक्रियमधः प्रतिपाताभावादप्रतिपाति तृतीयं शुक्लध्यानं तदवस्थायां ध्यायतीत्युक्तं भवति । किमस्य ध्यानस्य फलमिति चेद् ? योगास्रवस्यात्यन्तनिरोधनं सूक्ष्मतरकायपरिस्पन्दस्याप्यत्र निरन्वयनिरोधदर्शनात् । तथोक्तं-- तृतीयं काययोगस्य सर्वज्ञस्यागुतास्थितेः । योगक्रियानिरोधार्थ शुक्लध्यानं प्रकीर्तितम् ।।१॥ इति । सकलपदार्थविषय, वोपयोगपरिणते केवलिन्येकाग्रचिंतानिरोधासंभवध्यानानुपपत्तिरित्यभीष्टत्वात् इति चेत् ? सत्यमेतत्, सकलविदः साक्षात्कृताशेषपदार्थस्याक्रमोपयोगपरिणतस्यैकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणध्यानानुपपत्तिरित्यभीष्टत्वात् । किं तु योगनिरोधमात्रकर्मास्रवनिरोधलक्षणध्यानफलप्रवृत्तिमभिसमीक्ष्य तथोपचारप्रकल्पनमिति न इस अर्थ विशेषका सम्बन्ध देखा जाता है। इस प्रकार अन्तमुहूर्त कालतक कृष्टिगत योगका अनुभव करनेवाले अतिसूक्ष्म काययोगमें विद्यमान सयोगिकेवलीके उस अवस्थामें ध्यान परिणाम कैसा होता है ? ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * तथा सूक्ष्म क्रियारूप अप्रतिपाती ध्यानको ध्याता है। ३८६ जिसमें सूक्ष्म क्रियारूप योग हो वह सूक्ष्मक्रियारूप तथा नीचे प्रतिपात नहीं होनेसे अप्रतिपाति; ऐसे तीसरे शुक्लध्यानको उस अवस्थामें ध्याता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-इस ध्यानका क्या फल है ? समाधान-योगके आस्रवका अत्यन्त निरोध करना इसका फल है, क्योंकि सूक्ष्मतर कायपरिस्पन्दका भी यहाँपर अन्वयके बिना निरोध देखा जाता है। कहा भी है काययोगी और अद्भुत स्थितिवाले सर्वज्ञके योगक्रियाका निरोध करनेकेलिये तीसरा शुक्लध्यान कहा गया है ।। १ ॥ शंका-समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाले ध्रुव उपयोगसे परिणत केवली जिनमें एकाग्र चिन्तानिरोधका होना असम्भव है इसलिये इष्ट होनेसे ध्यानको उत्पत्ति नहीं हो सकती।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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