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________________ १७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [पच्छिमखंध-अत्याहियार समए विसेसहीणाओ वेदेदि, एवं जाव चरिमसमओ त्ति विसेसहीणकमेण किट्टीओ वेदेदि त्ति वत्तव्वं । $ ३८४ अथवा पढमसमए थोवाओ किट्टीओ वेदेदि, हेट्ठिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयाणं चेव किट्टीणं पढमसमये विणासिज्जमाणाणं पहाणभावेण विवक्खियत्तादो । बिदियसमये असंखेज्जगुणाओ वेदेदि, पढमसमए विणासिदकिट्टीहितो बिदियसमए असंखेज्जगुणाओ किट्टीओ हेडिमोवरिमासंखेज्जदिमागपडिबद्धाओ विणासेदि त्ति भणिदं होदि। एवमंतोमुहुत्तमसंखेज्जगुणाए सेढीए किट्टीगदजोगमेसो वेदेदि, समयं पडि मन्झिमकिट्टिआधारेण परिणामिज्जमाणाणं किट्टीणपसंखेज्जगुणभावेण पत्तिदसणादो। पढमादिसमएसु जहाकम वेदिदकिट्टीणं जीवपदेसा विदियादिसमएसु णिप्फंदसरूवेणाजोगा' होदण चिटुंति ति किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, एक्कम्मि जीवे सजोगाजोगपज्जयाणमक्कमेण पत्तिविरोहादो। 5 ३८५ तदो समयं पडि हेट्ठिमोवरिमासंखेज्जदिमागकिट्टीओ असंखेज्जगुणाए सेढीए मज्झिमकिट्टीआयारेण परिणामिय विणासेदि त्ति सिद्धं । ण च एवंविहो अत्थो सुत्ते णत्थि ति आसंकणिज्जं, 'किट्टीणं चरिमसमयअसंखेज्जे भागे णासेदि' त्ति उवरि में विशेषहीन कृष्टियोंका वेदन करता है । इस प्रकार अन्तिम समयतक विशेषहीनक्रमसे कृष्टियोंका वेदन करता है ऐसा कहना चाहिये। ६३८४ अथवा प्रथम समयमें स्तोक कुष्टियोंका वेदन करता है, क्योंकि प्रथम समयमें अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागविषयक कृष्टियाँ ही विनाश होती हुई प्रधानरूपसे विवक्षित हैं । दूसरे समयमें असंख्यातगुणी कृष्टियोंका वेदन करता है, क्योंकि प्रथम समयमें विनाशको प्राप्त हुईं कृष्टियोंसे दूसरे समयमें अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागसे सम्बन्ध रखनेवाली असंख्यातगुणी कृष्टियोंका विनाश करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार अन्तमुहूर्त कालतक असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे यह जीव कृष्टिगत योगका वेदन करता है, क्योंकि प्रत्येक समयमें मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमन करनेवाली कृष्टियोंकी असंख्यातगुणरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है। शंका--प्रथमादि समयोंमें क्रमसे वेदी गई कृष्टियोंके जीवप्रदेश द्वितीयादि समयोंमें अपरिस्पन्दस्वरूपसे अयोगी होकर स्थित रहते हैं, ऐसा क्यों नहीं मानते ? समाधान नहीं, क्योंकि एक जीवमें अक्रमसे सयोगरूप और अयोगरूप पर्यायोंकी प्रवृत्ति होनेमें विरोध आता है। ६३८५ तदनन्तर प्रतिसमय अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको असंख्यातगुणो श्रेणिरूपसे मध्यम कृष्टियोंके आकारसे परिणमाकर विनाश करता है, यह सिद्ध हुआ । इस प्रकारका अर्थ सूत्रमें नहीं है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि 'अन्तिम समयमें कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका नाश करता है' इस प्रकार आगे कहे जानेवाले सूत्र में स्पष्टरूपसे १. प्रेसकापीप्रती जोगी इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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