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________________ किट्टीगदजोग] १७७ ६ ३८२ जाव किट्टीकरणद्धाए चरिमसमओ ताव पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च अविणदुसरूवाणि दीसंति, तदसंखेज्जदिभागमेत्ताणं चेव सरिसधणियजीवपदेसाणं समयं पडिकिट्टीकरणयरूवेणे परिणमणमुवलंभादो। पुणो से काले पुवापुवफद्दयाणि सव्वाणि चेव अप्पणो सरूवपरिच्चागेण किट्टीसरूवेण परिणमंति जहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव उक्कस्सकिट्टि ति ताव एदासु किट्टीसु सरिसधणियसरूवेण तेसिं तकालमेव परिणमणणियमदंसणादो। एवं किट्टीकरणद्धा समत्ता। संपहि एत्तो पाए अंतोमुहुत्तकालं किट्टीगदजोगो होदूण सजोगि अद्धावसेसमणुपालेदि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं * अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि । गयत्थमेदं सुत्तं । $ ३८३ संपहि किट्टीगदजोगमेसो वेदमाणो किमंतोमुहुत्तमेत्तकालमवट्ठिदभावेण वेदेदि, आहो अण्णहा त्ति एवंविहाए आसंकाए णिराकरणं कस्सामो । तं जहा-पढमसमयकिट्टीवेदगो किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदेदि । पुणो बिदियसमए पढमसमयवेदिदकिट्टीणं हेडिमोवरिमासंखेन्जभागविसयाओ किट्टीओ सगसरूवं छंडिय मज्झिमकिट्टीसरुवेण वेदिज्जंति त्ति पढमसमयजोगादो बिदियसमयजोगो असंखेज्जगुणहीणो होइ । एवं तदियादिसमएसु वि णेदव्वं । तदो पढमसमए बहुगीओ किट्टीओ वेदेदि, बिदिय ६३८२ जब तक कृष्टिकरणके कालका अन्तिम समय है तब तक पूर्वस्पर्धक और अपूर्व स्पर्धक अविनष्टरूपसे दिखाई देते हैं, क्योंकि उनके असंख्यातवें भागप्रमाण ही सदृश धनवाले जीवप्रदेशोंका प्रत्येक समय में कृष्टिकरणरूपसे परिणमन उपलब्ध होता है। पुनः तदनन्तर समयमें सभी पूर्व और अपूर्व स्पर्धक अपने स्वरूपका त्याग करके कृष्टिरूपसे परिणमन करते हैं, क्योंकि जघन्य कृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक उन कृष्टियोंमें सदृश धनरूपसे उनका उस कालमें परिणमनका नियम देखा जाता है । इस प्रकार कृष्टिकरणकाल समाप्त हुआ। अब इसके बाद अन्तर्महूर्तकाल तक कृष्टिगत योगवाला होकर सयोगिकालमें जो अवशेष काल रहा उसका पालन करता है, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है * अन्तमुहूतेकाल तक कृष्टिगत योगवाला होता है। ६ ३८३ अब कृष्टिगत योगका वेदन करनेवाला यह सयोगीकेवली क्या अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित भावसे वेदन करता है या अन्य प्रकारसे वेदन करता है? इस तरह इस प्रकारकी आशंकाका निराकरण करेंगे । यथा-प्रथम समयमें कृष्टिवेदक कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका वेदन करता है। पुनः दूसरे समयमें प्रथम समयमें वेदी गई कृष्टियोंके अधस्तन और उपरिम असंख्यात भागविषयक कृष्टियाँ अपने स्वरूपको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे वेदी जाती हैं। इस प्रकार प्रथम समयसम्बन्धी योगसे दूसरे समयसम्बन्धी योग असंख्यात गुणहोन होता है । इस प्रकार तृतीय आदि समयोंमें भी जानना चाहिये । इसलिये प्रथम समयमें बहुत कृष्टियोंका वेदन करता है, दूसरे समय१.प्रेसकापीप्रतो किट्टीसरूवेण इति पाठः । २३
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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