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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार परूवणं कादूण संपहि जोगकिट्टीणमेदासिमंतोमुहुत्त मेत्तकालेण णिव्वत्तिज्जमाणाणं पमाणविसेसावहारणटुं उत्तरसुत्तारंभो-- * किट्टीओ सेढीए असंखेजदिभागो। $ ३८० कुदो ? सेढिपढमवग्गमूलम्स वि असंखेज्जदिभागभूदाणमेदासिं सेढीए असंखेज्जदिमागमेसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो। संपहि अपुव्वफद्दएहितो वि असंखेज्जगुणहीणपमाणत्तमेदासिमविरुद्धमिदि जाणावणफलमुत्तरसुत्तं* अपुष्वफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो । ३८१ एयगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयसलागाणमसंखेज्जदिभागमेत्ताणि अपुन्वफद्दयाणि होति । पुणो एदेसि पि असंखेज्जदिमागमेतीओ एदाओ किट्टीओ एयफद्दयवग्गणाणमसंखेज्जदिमागपमाणाओ दवाओ त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो। एवमंतोमुहत्तं किट्टीकरणद्धमणुपालेमाणस्स किट्टीकरणद्धाए जहाकम णिविदाए तदो से काले जो परूवणाविसेसो तण्णिण्णयविहाणट्टमुत्तरो सुत्तपबंधो * किट्टीकरणद्धे णिट्ठिदे से काले पुवफद्दयाणि अपुव्वफद्द याणि च णासेदि। _शेष कथन जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार कृष्टिगुणकारके प्रतिपादनद्वारा कृष्टियोंके लक्षणका प्ररूपण करके अब अन्तमुहूतंप्रमाणकालकेद्वारा रची जानेवाली इन योगसम्बन्धी कृष्टियोंके प्रमाणविशेषके अवधारणकरनेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * योगसम्बन्धी कृष्टियां जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। $ ३८० क्योंकि, जगश्रेणिके प्रथम वर्गमूलके भी असंख्यातवें भागप्रमाण इनके जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण की सिद्धि निर्बाधरूपसे उपलब्ध होती है। अब इनका अपर्व स्पर्धकोंसे भी असंख्यात गुणहीनपना अविरुद्ध है इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेका सूत्र कहते हैं * वे योगसम्बन्धी कृष्टियाँ अपूर्व स्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । ६ ३८१ एक गुणहानि स्थानान्तरकी स्पर्धकशलाकाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व स्पर्धक होते हैं । पुनः इनके भी असंख्यातवें भागप्रमाण ये योगकृष्टियाँ एक स्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिये । इस प्रकार यह इस सत्रका भावार्थ है। इस कष्टियोंको करनेकेलिये अन्तमुहूर्त कालका पालन करनेवाले इस जीवके कृष्टिकरणकालके यथाक्रम समाप्त होनेपर उसके बाद अनन्तर कालमें जो प्ररूपणाविशेष है उसका निर्णय करनेकेलिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * कृष्टिकरणकालके समाप्त होनेपर अनन्तर समयमें पूर्व स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकोंका नाश करता है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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