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________________ किट्टोकरणं ] १७५ 5 ३७८ एतदुक्तं भवति--जहण्णकिट्टीए सरिसघणियकिट्टीओ असंखेज्जपदरमेत्तीओ अत्थि, तत्थ एगजहण्णकिट्टीए जोगाविमागपडिच्छेदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदे एगजीवपदेसमस्सियण तदणंतरोवरिमएगकिट्टीए जोगाविभागपडिच्छेदा होति । एवं बिदियादिकिट्टीसु वि गुणगारपरूवणा णेदव्वा जाव चरिमकिट्टि ति । पुणो एगचरिमकिट्टीए जोगाविभागपडिच्छेदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदे अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए एगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदा होति । तदो उवरि जीवपदेसा फद्दयसमयाविरोहेण अविभागपडिच्छेदेहिं विसेसाहिया भवंति त्ति दट्टत्वं । एवमेगजीवपदेसमस्सियण भणिदं । $ ३७९ अथवा जहण्णकिट्टीए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदाए बिदियकिट्टी भवदि। एवं गुणगारो णेदव्वो जाव चरिमकिट्टि ति । एस गुणगारो जाव सरिसधणियाणि पेक्खियूण मणिदो। पुणो चरिमकिट्टीए सरिसधणियसव्वाविभागपडिच्छेदसमुदायादो अपुव्वफद्दयादिवग्गणाए सरिसधणियसव्वाविभागपडिच्छेदसमूहो असंखेज्जगुणहीणो त्ति वत्तव्यो, उवरिमअविभागपडिच्छेदगुणगारादो हेट्ठिमजीवपदेसगुणगारस्सासंखेज्जगुणत्तदंसणादो । को एत्थ गुणगारो ? सेढीए असंखेज्जदिभागो। सेसं जाणिय वत्तव्वं । एवं किट्टीगुणगारपदुप्पायणमुहेण किट्टीलक्खण ६३७८ उक्त कथनका यह तात्पर्य है-जघन्य कृष्टिके सदृश धनवाली कृष्टियाँ असंख्यातजगप्रतरप्रमाण हैं। वहाँ एक जघन्य कृष्टिके योगसम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेदोंको पाल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर एक जीवप्रदेशके आश्रयसे जघन्य कृष्टिके अनन्तर उपरिम एक कृष्टिमें योगसम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं । इसी प्रकार दूसरी आदि कृष्टियोंमें भी अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक गुणकार प्ररूपणा जाननी चाहिये । पुनः एक अन्तिम कृष्टिके योगसम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेदोंको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर अपूर्व स्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें एक जीवप्रदेशके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इसके आगे जीवप्रदेश आगमानुसार अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार एक जीवप्रदेशका आश्रयकर कहा है। ६ ३७९ अथवा जघन्य कृष्टिको पल्योपमके असंख्यात भागसे गुणित करनेपर दूसरी कृष्टि होती है। इस प्रकार अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होनेतक यह गुणकार जानना चाहिये । यह गुणकार जबतक सदृश धनवाली कृष्टियाँ हैं उनको देखकर कहा है । पुनः अन्तिम कृष्टिके सदृश धनवाले पूरे अविभागप्रतिच्छेदसमुदायसे अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें सदृश धनवाले सब अविभागप्रतिच्छेदोंका समूह असंख्यात गुणहीन होता है ऐसा कहना चाहिये, उपरिम अविभागप्रतिच्छेद गुणकारसे अधस्तन जीवप्रदेशगुणकार असंख्यातगुणा देखा जाता है । शंका-यहाँपर गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान यहाँपर गुणकारका प्रमाण जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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