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________________ १७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्याहियार उवरि असंखेज्जदिभागहीणं णिसिंचदि, तत्थ पुव्वणिसित्तजीवपदेसमेत्तेण एगकिट्टीविसेसमेत्तेण च । एतो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणे चेव णिक्खिवदि जाव चरिमकिट्टि ति । किट्टीफद्दयसंधीए पुव्वत्तो चेव कमो परूवेयव्वो। एवमंतोमुहुत्तमेत्तकालमसंखेज्जगुणहाणीए सेढीए अपुवकिट्टोओ णिवत्तेदि । जीवपदेसे पुण असंखेज्जगुणाए सेढीए ओकड्डियूण किट्टीसु णिसिंचदि जाव किट्टीकरणद्धाए चरिमसमओ त्ति । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणद्वमुत्तरो सुत्तपबंधो-- * एत्थ अंतोमुहुत्तं करेदि किट्टीयो असंखेजगुणाए सेढीए । ६ ३७६ सुगमं । * जीवपदेसाणमसंखेनगुणाए सेढीए । $ ३७७ सुगममेदं पि सुत्तं । संपहि एवं णिव्वत्तिज्जमाणीसु किट्टीसु हेट्ठिमहेडिमकिट्टीदो उवरिमउवरिमकिट्टीणं केवडिओ गुणगारो होदि ति आसंकाए णिरायरणटुं किट्टीगुणगारपमाणमुवरिमसुत्तेण णिदिसइ-- * किट्टीगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। दूसरे समयमें की जानेवाली अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टि तक निक्षिप्त करता जाता है। पुनः दूसरे समयमें पहलेकी अन्तिम कृष्टिसे प्रथम समयमें रची जानेवाली अपूर्व कृष्टियोंकी जो जघन्य कृष्टि है उसके ऊपर असंख्यातवें भागहीन जीवप्रदेशोंको सिंचित करता है, क्योंकि उसमें पूर्वमें निक्षिप्त किये जीवप्रदेशमात्र और एक कृष्टि विशेषमात्र निक्षिप्त करता है। इससे आगे सर्वत्र अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक विशेषहीन ही जोवप्रदेशोंको निक्षिप्त करता है। कृष्टि और स्पर्धककी सन्धिमें पूर्वोक्त क्रम ही कहना चाहिये । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे अपूर्वकृष्टियोंको रचता है। परन्तु कृष्टिकरण कालके अन्तिम समय तक कृष्टियोंमें असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे जीवप्रदेशोंको सिंचित करता है। अब इसी अर्थके स्पष्टीकरण करनेकेलिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * यहाँपर असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कृष्टियोंको अन्तर्मुहूर्तकाल तक करता है। ६ ३७६ यह सूत्र सुगम है। * असंख्यातगुणीश्रेणिरूपसे जीवप्रदेशोंको करता है । ६३७७ यह सूत्र भी सुगम है। अब यहाँपर रची जानेवाली कृष्टियोंमें अधस्तन-अधस्तन कृष्टियोंसे उपरिम-उपरिम कृष्टियोंका कितना गुणकार होता है ऐसी आशंकाका निराकरण करनेकेलिये आगेके सूत्रद्वारा कृष्टियोंके गुणकारके प्रमाणका निर्देश करते हैं * कृष्टिगुणकार पन्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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