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________________ १८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्याहियार ३९१ पुणो चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालीदव्वं घेत्तूण उदये पदेसग्गं थोवं देदि । से काले असंखेज्जगुणं देदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव अजोगिचरिमसमयो त्ति। संपहि एदम्मि चेव समये जोगणिरोहकिरियाए सजोगिअद्धाए च परिसमत्ती । एत्तो पाए णत्थि गुणसेढी ठिदि-अणुभागपादो वा । केवलमधट्टिदीए कम्मणिज्जरमसंखेज्जगुणाए सेढीए अणुपालेदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थेव सादावेदणीयस्स पयडिबंधवोच्छेदो, ऊणचालीसपयडीणमुदीरणाओ वोच्छेदो च ददुव्वो। ताधे चेव आउअसमाणि णामागोदवेदणीयाणि हिदिसंतकम्मेण जादाणि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो-- * जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअसमाणि कम्माणि होति । ६ ३९२ केवलिसमुग्धादकिरियाए जोगणिरोहकालभंतरट्ठिदिअणुभागघादेहि य घादिदसेसाणि णामागोदवेदणीयाणि एण्हिमाउगसरिसाणि होदण अजोगिअद्धामेत्तट्ठिदिसंतकम्माणि जादाणि त्ति वुत्तं होइ । एवमेत्तिएण परूवणापबंधेण सजोगिगुणट्ठाणमणुपालिय तदद्धाए परिसमत्ताए जहावसरपत्तमजोगिगुणट्ठाणं पडिवज्जदि त्ति पदुप्पाए•माणो सुत्तमुत्तरं भणइ । * तदो अंतोमुहुत्तं सेलेसिं य पङिवज्जदि । ६ ३९१ पुनः अन्तिम स्थितिकाण्डकको अन्तिम फालिके द्रव्य को ग्रहण करके उदयमें स्तोक प्रदेशपुंजको देता है । तदनन्तर समयमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ अयोगि केवलीके अन्तिम समय तक जाता है। अब इसी समयमें योगनिरोधक्रिया और सयोगिकेवलोके कालकी समाप्ति होती है। इससे आगे गुणश्रेणि और स्थितिघात तथा अनुभागघात नहीं है। केवल अधःस्थितिकेद्वारा असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मनिर्जराका पालन करता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहींपर सातवेदनीयके प्रकृतिबन्धकी व्युच्छित्ति होती है तथा उनतालीस प्रकृतियोंकी उदीरणाव्युच्छित्ति जाननी चाहिये। उसी समय आयुके समान नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म स्थितिसत्कर्म रूपसे हो जाते हैं, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * योगका निरोध होनेपर [स्थितिकी अपेक्षा] आयुके समान कर्म होते हैं। ६ ३९२ केवलिसमुद्धातक्रियाद्वारा योगनिरोधरूप कालके भीतर स्थितिघात और अनुभागघातकेद्वारा घात करनेसे शेष रहे नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म इस समय आयुकर्मके समान होकर अयोगिकेवलोके कालके बराबर उनका स्थितिसत्कर्म हो जाता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इतने प्ररूपणाप्रबन्धद्वारा सयोगिकेवली गुणस्थानका पालन करके उस कालके समाप्त होनेपर यथावसर प्राप्त अयोगिकेवली गुणस्थानको प्राप्त होता है, इस बातका प्रतिपादन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * तदनन्तर अयोगकेवली जिन अन्तर्मुहूर्त काल तक शैलेश पदको प्राप्त करते हैं।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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