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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ चारित्तक्खवणा
घटत इत्याशंकायां दत्तमुत्तरं । वेदकषायोदय भेदमाश्रित्य करणपरिणामानामभिन्नस्वभावानामपि यथोक्तं नानात्वविशिष्टकार्यनिर्वर्तने व्यापाराविरोधादिति । एवमेतावता प्रबंधेन सूक्ष्मसां परायगुणस्थानपर्यंतं चारित्रमोहक्षपणाविधिं प्रपंचेन प्ररूप्य साम्प्रतं सूक्ष्मसां पराय चरिमसमयविषयं प्ररूपणावशेषं निरूपयितुमुत्तरं सूत्रप्रबन्धमाचष्टे ।
* जाधे चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो ताघे णामागोदाणं द्विदिबंधो मुहुत्ता ।
* वेदणीयस्स ट्ठिदिबंधो बारस मुहुत्ता |
* तिन्हं धादिकम्माणं द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तं ।
* तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं अंतोमुहुत्तं ।
* णामागोद वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्त्राणि ।
$ २८४ गतार्थत्वान्नात्र किंचिद् व्याख्येयमस्ति ।
* मोहणीयस्स ट्ठदिसंतकम्मं णस्सदि ।
अभिनिवेश कैसे घटित होता है ? ऐसी आशंका होनेपर उत्तर दे आये हैं कि वेदों और कषायोंके उदय सम्बन्धी भेदका आश्रय करके करणपरिणामों के अभिन्नस्वभाववाला होनेपर भी यथोक्तरूपसे नानारूप कार्यों के रचनारूप व्यापारके होनेसे विरोध नहीं आता । इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान पर्यन्त विस्तार के साथ चारित्रमोह के विषय में क्षपणाधिका प्ररूपण करके अब सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय विषयक प्ररूपणासम्बन्धी अवशेष कथनका निरूपण करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* जब अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है तब नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त होता है ।
* वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त होता है ।
* तीन षातिकर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त होता है ।
* तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त होता है ।
* नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण होता है ।
९ २८४ गतार्थ होने से यहाँपर कुछ व्याख्यान करनेयोग्य नहीं है ।
* मोहनीयकर्मका स्थितिसच्च नाशको प्राप्त होता है ।