________________
२१४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[जयधवला भाग १
पुराना संस्करण पृष्ठ पंक्ति प्रश्न या सुझाव
समाधान ६३ १४ यहाँ "अर्थात् स्थितिबन्ध का अभाव" के शंकाकार ने जो शंका उपस्थित की है वह इस
स्थान पर 'अर्थात् स्थिति का क्षय', अपेक्षा से ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ मूल में उद्धृत होना चाहिए। इसी तरह पं०१५-१६ गाथा का अर्थ मात्र किया गया है। यहाँ भाई कहना में "अर्थात् नवीन कर्मों में स्थिति नहीं चाहते हैं कि स्थिति के क्षय से कर्मों का क्षय होता पड़ती है", इसके स्थान पर 'अर्थात् है. सो केवल स्थिति के ही क्षय से कर्मों का अभाव स्थिति का क्षय होता है', ऐसा चाहिए। नहीं होता। परन्तु प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और
प्रदेशों के बन्ध के अभाव से कर्मों का क्षय होता है । यहाँ बन्ध से मतलब निमित-नैमित्तिकरूप से जीव के साथ चिरकाल से बन्ध को प्राप्त हुए कर्म लेना चाहिए; यहाँ नवीन बन्ध से मतलब नहीं है ।
६७ १० "यदि कहा जाय कि केवली अभूतार्थ यहाँ अभूतार्थ शब्द असत्य के अर्थ में ही आया
का प्रतिपादन करते हैं ....."।" यहाँ है, इसलिए जिज्ञासुओं को वैसा ही समझना चाहिए । 'अभूतार्थ' के स्थान पर 'असत्य' होना सुझाव प्रदाता ने जो समयसार गाथा ४६ का उद्घचाहिए।
रण देकर अपने कथन की पुष्टि करनी चाही है वह | नवीन संस्करण पृ० ६०५० २०] ठीक नहीं है। क्योंकि केवली भगवान् ने जैसा ज्ञेय
है वैसा ही जाना है।
१०५ १४ यहां इस पंक्ति में 'शुद्धयोग' शब्द जो
छपा है वह नहीं होना चाहिए। [ नवीन संस्करण पृ० ९६ पं० १३ ]
इस सम्बन्ध में "शुद्धमनोवाक्कायक्रियाः" इस वाक्य के आधार पर शुद्ध-योग यह अर्थ [गाथा का अर्थ करते हुए ] किया गया है। यह तो हम जानते हैं कि योग शुभ या अशुभ दो ही प्रकार का होता है तथा वह औदयिकभाव स्वरूप है, यह भी हम जनते हैं। पर प्रकृत में शुभ उपयोग के साथ शुद्ध योग यह अर्थ गाथा से फलित होने से हमने वैसा ही अर्थ किया है।
२३२ १७-२१ "एक समयवर्ती पर्याय अर्थपर्याय इस विषय में हमारा इतना कहना है कि
है और चिरकालस्थायी पर्याय पर्याय चाहे अर्थपर्याय हो या व्यञ्जनपर्याय हो, वह व्यञ्जनपर्याय है"; क्या यह हमारा प्रत्येक समय में बदलती है। व्यंजनपर्याय को जो चिन्तन ठीक है; संक्षेप में समझाए। चिरस्थायी कहा गया है वह प्रत्येक समय में होने [नवीन संस्करण पृ० २११ वाली पर्यायों में सदशपने की विवक्षा से ही कहा .० १९-२३ ]
गया है। ऐसा हो अन्यत्र जानना।