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________________ ५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा ___१२१ एदिस्से गाहाए अत्यो वुच्चदे, तं जहा–जं किटिं दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबंधसरूवसंछोहणाए चेव खवेमाणो तदवत्थाए तिस्से णियमा अबंधगो । सुहुमसांपराइयकिट्टीए च अबंधगो हादि, तत्थ तब्बंधसत्तीए अच्चंतासंभवादो । सेसाणं पुण किट्टीणं बंधगो होदि, बादरसांपराइयविसये खविज्जमाणकिट्टीणं सगवेदगद्धामेत्तकालं बंधसंभवे विरोहाणुवलंभादो । संपहि एदस्सेव सुत्तत्थस्स फुडीकरण?मुवरिमं विहासागंथमाढवेइ * विहासा। ६ १२२ सुगम । * जं जं खवेदि किट्टि णियमा तिस्से बंधगो मोत्तण दो हो भावलियबंधे दुसमयणे सुहुमसांपराइयकिट्टीओ च । ६ १२३ सुगमो च एसो विहासागंथो त्ति ण एत्थ किंचि वक्खाणेयव्वमत्थि । ६ १२१ अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं। यथा-दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धस्वरूप जिस कृष्टिका संक्रमण द्वारा क्षय करता है उस अवस्था में उसका नियमसे अबन्धक होता है क्योंकि वहां उसके बन्धको शक्तिका होना अत्यन्त असम्भव है। परन्तु शेष कृष्टियोंका बन्धक होता है, क्योंकि बादर साम्परायिक गुणस्थानमें क्षयको प्राप्त होनेवाली कृष्टियोंका अपने वेदक कालप्रमाण कालतक उनके बन्धके सम्भव होनेमें विरोध नहीं पाया जाता। अब इसी सूत्रसम्बन्धी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषाकी जाती है। ६ १२२ यह सूत्र सुगम है। * जिस-जिस कृष्टिका क्षय करता है वह, दो समय कम दो-दो आवलिप्रमाण नवक-बन्धकृष्टियोंको तथा सूक्ष्यसाम्परायिक कृष्टियोंको छोड़कर, उनका नियमसे बन्धक होता है। ६१२३ इसका विभाषाग्रन्थ सुगम है, इसलिये इस विषय में कुछ भी व्याख्यान करने योग्य नहीं है। विशेषार्थ--इसकी गाथा २०६ को विभाषा करते हुए बतलाया है कि क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला क्षपक चारों संज्वलनकषायों की प्रथम संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है। इस पर यह शंका की गई है कि क्या इस प्रकार क्रोधसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला जोव चारों कषायोंकी क्या दूसरी संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है ? इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि जिस संज्वलन कषायको जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस कषाय को उस संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है तथा शेष कषायोंका प्रथम संग्रह कृष्टियोंका बन्ध करता है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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