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गा० २१६-२१७ ]
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$ ११८ 'जं चावि संछुहंतो' एवं भणिदे जं खलु किट्टि संकामें तो चैव खवेदि, तिस्से किं बंधगो होदि आहो ण होदि ति गाहापच्छद्वे सुत्तस्थसंबंधो । एदस्स भावत्थो - दुसमणदो आवलियमेत्तणवकबंध किट्टीओ संछुहंतो चेव खवेदि, ण वेदेंतो । एवं च खवेमाणो तदवत्थाए णिरुद्धसंगह किट्टीए किं बंधगो होदि आहो ण होदित्ति पुच्छा कदा होदि । एवमेदीए विदियमूलगाहाए पुच्छामेतेण णिद्दिट्ठस्स अत्थविसेसस्स यिविहाणमेत्थ एक्का भासगाहा अस्थि । तिस्से समुक्कित्तणं विहासणं च कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एदिस्से गाहाए एक्का भासगाहा ।
११९ सुगमं ।
* जहा ।
$ १२० सुगमं ।
* (१६४) जं चावि संछुहंतो खवेदि किहिं अबंधगो तिस्से । सुमम्हि सांपराए अबंधगो बंधगिदरासिं ॥ २१७ ॥
११८ 'जं चावि संछुहंतो' ऐसा कहनेपर नियमसे जिस कृष्टिका संक्रमण करता हुआ क्षय करता है उसका क्या बन्धक होता है या इस प्रकार नहीं होता ? यह सूत्रगाथाके उत्तरार्धमें इस गाथासूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । इसका भावार्थ - दो समय कम दो आवलिप्रमाण कृष्टियों का संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, वेदन करता हुआ क्षय नहीं करता है । और इस प्रकार क्षय करता हुआ उस अवस्थामें विवक्षित संग्रह कृष्टिका क्या बन्धक होता है अथवा बन्धक नहीं होता ? यह पृच्छा की गई है। इस प्रकार इस दूसरो मूलगाया में पृच्छाद्वारा कहे गये अर्थविशेष निर्णयका विधान करने के लिये इस विषय में एक भाष्यगाथा आई है उसकी समुत्कीर्तना और विभाषाको करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* इस मूल गाथाकी एक भाष्यगाथा है ।
$ ११९ यह सूत्र सुगम है ।
* जैसे ।
$ १२० यह सूत्र सुगम है ।
* (१६४) जिस कृष्टिका संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है उसका वह बन्धक नहीं होता तथा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका वह अबन्धक रहता है । किन्तु शेष कृष्टियोंका वेदन होकर क्षपण कालमें वह उनका बन्धक होता है ।। २१७ ॥