SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ चारितवखवणा * एतो बिदियमलगाहा । ११६ सुगमं । * (१६३) जं वेदेतो किहिं खवेदि किं चावि बंधगो तिस्से | जं चावि संछुहंतो तिम्से किं बंधगो होदि ॥ २१६ ॥ - $ ११७ एसा बिदिय मूलगाहा किं वेदगस्स खवगस्स वेदिज्जमाणावेदिज्जमाणसरूवेण खविज्जमाणासु किट्टी कासिं बंधसंबंधो अत्थि, कासिं वा णत्थि त्ति इममत्थविसेसं पुच्छाहेण पदुप्पाएदुमोइण्णा परिप्फुडमेवेत्थ तहाविहत्थविसय पुच्छाणिद्दस-दंसणादो । तं जहा – 'जं वेदेंतो किट्टि' एवं भणिदे जं खलु किट्टि वेदेमाणो खवेदि किं तिस्से किट्टीए बंधगो होदि, आहो ण होदि ति गाहापुव्वद्धे सुत्तत्थसंबंधो । एदस्स भावत्थो – दुसमयू णदोआवलियमेत्तणवकबंधे मोत्तूण सेसाओ एक्कारस-संगहकिडीणमंतर कट्टीओ वेदेमाणो खवेदि ति वृत्तं । एवं च खवेमाणो तदवत्थाए जं जं किट्टिं खवेदि तिस्से किट्टीए किं णियमा बंधगो होदि, आहो अबंधगो चेव, किं वा सिया बंधगो, सिया च ण बंधगो ति पुच्छिदं होदि । * इसके आगे दूसरी मूल सूत्रगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । ११६ यह सूत्र सुगम है । * (१६३) कृष्टिवेदक क्षपक जिस कृष्टिका वेदन करता हुआ क्षय करता है क्या उसका वह बन्धक भी होता है तथा जिस कृष्टिका संक्रमण करता हुआ क्षय करता है उसका भी क्या वह बन्धक होता है ।। २१६ ।। $ ११७ यह दूसरी मूलगाथा कृष्टियोंका क्या वेदन करनेवाले क्षपकका वेदी जानेवाली या नहीं वेदी जानेवालो स्वरूपसे क्षयको प्राप्त होनेवाली कृष्टियों के होनेपर, किनका बन्धके साथ क्या सम्बन्ध है अथवा किनका बन्धके साथ सम्बन्ध नहीं है, इस प्रकार इस अर्थविशेषका पृच्छाद्वारा प्रतिपादन करनेके लिये अवतीर्ण हुई है, क्योंकि इस गाथा में उस प्रकारकी अर्थविषयक पृच्छाका निर्देश स्पष्ट रूप से ही देखा जाता है । यथा - 'जं किट्टि वेदतो' ऐसा कहने पर नियमसे जिस कृष्टिका वेदन करता हुआ उसको क्षपणा करता है, क्या उस कृष्टिका वह बन्धक होता है या बन्धक नहीं होता, इस प्रकार गाथाके पूर्वार्धमें इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है । इसका भावार्थ-दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवत्र बन्धको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियों और अन्तर कृष्टियोंको वेदन करनेवाला क्षय करता है यह उक्त सूत्रगाथामें कहा गया है । और इस प्रकार क्षय करता हुआ वह क्षपक उस अवस्थामें जिस-जिस कृष्टि का क्षय करता है-उस-उस कृष्टिका वह क्या नियमसे बन्धक होता है या अबन्धक ही रहता है, अथवा क्या कथंचित् बन्धक होता है और कथंचित् बन्धक नहीं होता, इस प्रकार यह पृच्छा की गई है ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy