SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा इच्चादि। जाओ पुचपविट्ठाओ उदयावलियाओ अणंताओं अवेदिज्जमाणकिट्टीओ णिरुद्धसंगहकिट्टीए हेद्विमोवरिमासंखेज्जभागविसयपडिबद्धाओ ताओ सव्वाओ वि पादेक्कमेक्कक्किस्से वेदिज्जमाणमज्झिमकिट्टीए सरूवेण परिणमंति त्ति वृत्तं होइ । संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ । * विदासा। २०१ सुगम । * तं जहा। २०२ सुगमं । * जा संगहकिट्टी उद्दिण्णा तिस्से उवरि असंखेनदिभागो हेट्ठा वि असंखेजदिभागो किट्टीणमणदिण्णो। २०३ गिरुद्धवे दिज्जमाणसंगहकिट्ठीए हेट्ठिमोवग्मिासंखेज्जदिभागविसयाओ किट्टीओ सगसरूवेण सव्वत्थ उदयं ण पविसंति त्ति एसो एदस्स भावत्थो। ॐ मज्झागारे असंखेजा भागा किट्टीणमुदिपणा। २०४ णिरुद्धसंगहकिट्टीए. मज्झिमबहुभागा सगसरूवेणेव उदयं पविसंति त्ति मणिदं होदि । इत्यादि । जो नियमसे उदयावलिमें पहले प्रविष्ट हुई विवक्षित संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषय करनेवाली अनन्त अवेद्यमान् कृष्टियाँ वेद्यमान मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इसी गाथासूत्रको स्पष्ट करनेके लिये आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। १२०१ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। 8:०२ यह सूत्र सुगम है। * जो संग्रहकृष्टि उदीर्ण होती है अर्थात् उदीरणाद्वारा उदयको प्राप्त होती है तत्सम्बन्धी अन्तरकृष्टियोंका उपरिम असंख्यातवां भाग और अन्तरकृष्टियोंका अधस्तन भी असंख्यातवाँ भाग अनुदीक रहता है । २०३ विवक्षित वेद्यमान संग्रहकष्टिका अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषय करने वाली कृष्टियाँ सर्वत्र अपने रूपसे उदयमें प्रवेश नहीं करती हैं; यह इस सूत्रका भावार्थ है । * अन्तरकृष्टियोंमेंसे मध्यके आकारसे अर्थात् मध्यकी असंख्यात बहुभागप्रमाण कृष्टियाँ उदीर्ण होती हैं । २०४ विवक्षित संग्रहकृष्टिको मध्यम बहुभागप्रमाण कृष्टियाँ अपने स्वरूपसे हो उदयम प्रवेश करता हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy