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________________ गा० २२६ ] * तत्थ जानो अणुदिग्णाश्रो किडीओ तदो एक्केक्का किट्टी सव्वासु उदिष्णासु किट्टीसु संकमेदि । २०५ एतदुक्तं भवति–वेदिज्जमाणसंगहकिट्टीए जहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव उक्कस्सकिट्टि त्ति ओकडियणुदये संछु हमाणस्स तत्थ मज्झिमा असंखेज्जा भागा अप्पणो सरूवेणेव उदयं पविट्ठा । पुणो तिस्से हेट्ठिमोवरिमास खेज्जदिभागे एक्केक्का अंतरकिट्टी अप्पप्पणो सरू वेणुदयं ण पविसदि ? तच्चेदमुवरिमभागकिट्टी मवासिमेव सरूवेण परिणमिय उदयं पविसदि परिणामविसेसमस्सियण तत्थ तहा परिणमणसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो त्ति । एवमेदेण सुत्तेण गाहापुनद्धमस्सियूण ओकट्टियणुदये णिसिंचमाणपदेमपिंडस्स अणुभागोदयविही परूविदो । संपहि'इममवत्थमुवसंहारमुहेण पप्पाएमाणा सुतपुतरं भगई। ___ * एदेण कारणेण 'जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संकमदि एक्का' त्ति भण्णदि। २०६ गयत्थमेदं सुत्तं । एवं गाहापुव्वद्धं विहासिय संपहि गाहापच्छद्धविहासणट्ठमिदमाह * एक्किस्से वि उदिएणाए किट्टीए केत्तियाश्रो किट्टीो संकमंति ? * उस संग्रह कृष्टिमेंसे जो अनुदीर्ण असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकृष्टियाँ हैं उनमेंसे एक-एक कृष्टि उदीर्ण होनेवाली सब कृष्टियोंमें संक्रमित होती है। २०५ उक्त कथनका यह तात्पर्य है-वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टिको जघन्य अन्तरकृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट अन्तरकृष्टि तकको कृष्टियोंका अपकर्षण करके उदयमें निक्षिप्त करने वाले क्षपकके उनमेंसे मध्यम असंख्यात बहभागप्रमाण कृष्टियाँ अपने स्वरूपसे ही उदयमें प्रवेश करती हैं । पुनः उक्त संग्रहकृष्टिक अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागमेंसे एक-एक अन्तरकृष्टि अपने-अपने स्वरूपसे उदयमें प्रवेश नहीं करती हैं, और यह अधस्तन तथा उपरिम भागप्रमाण कृष्टियाँ उदीर्ण होने वाली सभी कृष्टियोंके रूपसे परिणमकर उदयमें प्रवेश करती हैं, क्योंकि परिणामविशेषका आश्रय करके वहाँ उस प्रकारको परिणामकी सिद्धि होनेमें कोई बाधा नहीं पाई जाती । इस प्रकार इस सूत्रद्वारा गाथाके पूर्वार्धका आश्रय करके अपकर्षण करके उदयमें सींचे जाने वाले प्रदेशपुंजकी अनुभागसम्बन्धो उदयको विधि प्ररूपित की है । अब इसी अर्थके उपसंहारमुखसे प्रतिपादन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं___ * इस कारणसे जिन अनन्त वर्गणाओं (कृष्टियों) को उदीर्ण करता है उनमें एक-एक [वर्गणा] अन्तरकृष्टि संक्रमण करती है । ६ २०६ यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार गाथाके पूर्वार्धको विभाषा करके अब गाथाके उत्तरार्धकी विभाषा करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं * एक भी उदीर्ण कृष्टिपर कितनी कृष्टियाँ संक्रमण करती हैं ?
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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