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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुढे [चारित्तक्खवणा २०७ पुच्छावक्कमेदं सुगमं । * जाओ श्रावलियपुवपविट्ठात्रो उदयेण अधट्ठिदिगं विपच्चंति ताश्रो सव्वाश्रो एकिस्से उदिणाए किट्टीए संकमति । ६२०८ उदीरणासरूवेणुदयम्मि वट्टमाणाओ अणंताओ किट्टीओ अत्थि, पुणो तासु एगकिट्टीए सरिसधणियसरूवेण कमेणुदयं पविसमाणाणं तक्किट्टीणं सरिसधणियाणि परिणमंति । एवं पादेक्कं जत्तियाओ किट्टीओ उदिण्णाओ तासि सव्वासि पि स रसधणियाणि होदूण मज्झिमकिट्टीसरूवेणा उदयं पविसंति त्ति भणिदं होदि । एवमेदेण सुत्तेण कमोदएण उदयं पविसमाणा उवरिमद्विदि-अणभागस्स मज्झिमकिट्टीसरूवेण परिणमणविही परूविदो त्ति घेत्तव्यो। संपहि इममेव गाहापच्छद्धपडिबद्धमत्थमुवसंहारमुहेण पदंसेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एदेण कारणेण पुवपविट्ठा एक्किस्से अणंता त्ति भण्णंति । $ २०९ गयत्थमेदं सुत्तं । एवमट्ठमीए भासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय सपहि एत्थेव गाहापच्छद्धणिट्टित्थविसये पुणो वि विसेसणिण्णयजणणटुं णवमभासगाहाए अवयारो कीरदे । ६ २०७ यह पृच्छासूत्र सुगम है। * जो कृष्टियाँ उदयावलिमें पहले प्रविष्ट हुई हैं वे अधःस्थितिगलन होकर अर्थात् एक-एक स्थिति गलकर उदयद्वारा विपाकको प्राप्त होती हैं; वे सब एक-एक उदीर्ण कृष्टिपर संक्रमण करती हैं। ६ २०८ उदीरणास्वरूपसे उदयमें वर्तमान अनन्त कृष्टियाँ हैं, पुनः उनमें से एक कृष्टि सदृश धनरूपसे क्रमसे उदय में प्रवेश करनेवालो अनन्त कृष्टियोंके सदृश धनरूप होकर परिणमती हैं। इस प्रकार अलग-अलग जितनो कृष्टियाँ उदोर्ण होतो हैं वे सभी कृष्टियाँ सदृश धनरूप होकर मध्यम कृष्टिरूपसे हो उदयमें प्रवेश करती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस सूत्रद्वारा क्रमसे उदयद्वारा उदयमें प्रवेश करतो हुई उपरिम स्थिति अनुभागकी मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमन करनेकी विधि कही ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अब गाथाके उत्तरार्धसे सम्बन्ध रखनेवाले इसी अर्थका उपसंहारद्वारा प्रदर्शन करते हुए उत्तर सूत्रको कहते हैं___* इस कारणसे पहले प्रविष्ट हुई अनन्त कृष्टियाँ एक-एक कृष्टिपर संक्रमण करती हुई कही जाती हैं। ६२०९ यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार आठवीं भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा समाप्त करके अब यहों पर गाथाक उत्तरार्धमें कहे गये अर्थ के विषय में फिर भो विशेष निर्णयको उत्पन्न करनेकेलिये नौवीं भाष्यगाथाका अवतार करते हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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