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________________ गा० २२६ ] णिदिटुं, तदो 'जाओ वग्गणाओ उदीरेदि त्ति भणिदे जाओ किट्टीओ उदीरेदि त्ति अत्थो घेतव्योः एदम्मि विसए किट्टीणं चेव वग्गणववएसारिहत्तदंसणादो। ताओ च अणंताओ त्ति जाणावणठं 'अणता' इदि भणिदं । एदं पि विदियाबहुवयणंतमेव घेत्तव्यं । ६ १९९ 'तासु संकमदि' एक्का' एवं भणिदे तासु उदीरिजमाण किट्टीसु अणंतभेयभिण्णासु एक्केक्का अवेदिज्जमाणकिट्टी हेट्ठिमा उवरिमा वा परिणमदि ति वुत्तं होदि, सगसरूवपरिच्चागेण मज्झिमकिट्टोसरूवपरिणामस्सेव संकमभावेणेह विवक्खियत्तादो । तदो एक्केका अणुदीरिज्जमाणहेट्ठिमोवरिमकिट्टी सव्वासु चेव उदीरिज्जमाणमनिममकिट्टीसु अणंतसंखावच्छिण्णासु संकमियूण परसरूवेण विपच्चदि त्ति एसो एत्थ गाहापुव्वद्धे सुत्तत्थसंगहो । ण च एक्किस्से किट्टीए अणंताणं कीट्टीणं सरूवेण परिणामो विरुद्धो ति आसंकणिज्जं; अणंतसरिसधणियपरमाणुसमूहप्पियाए एक्किस्से वि किट्टीए अणंतासु किट्टीसु समयाविरोहेण परिणमणसिद्धीए बाहाणुवलंभादो। ६२०० संपहि एक्किस्से च वेदिज्जमाणकिट्टीए अणंताणमवेदिज्जमाणकिट्टीणं संकमणसंभवो अत्थि त्ति जाणावणटुं गाहापच्छद्धमोइण्णं 'पुवपविट्ठा णियमा - होने पर तो प्रकृतमें गाथाका छन्द भंग होता है; इस भयसे ओकारका लोप करके उक्त वचन निर्दिा किया है, तदनुसार 'जाओ वग्गणाओ उदी रेदि' ऐसा कहने पर जिन कृष्टियोंको उदीरणा करता है, [ उक्तपदोंका ] ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि इस स्थानमें कृष्टियोंको हो वर्गणा संज्ञाके योग्य देखा जाता है । और वे कृष्टियाँ अनन्त हैं इस बात का ज्ञान कराने के लिये गाथामें 'अणंता' यह वचन कहा है । यह वचन भी द्वितीया विभक्ति बहुवचनान्त ही ग्रहण करना चाहिये । ६ १९९ 'तासु संकमदि एक्का' ऐसा कहने पर 'तासु' अर्थात् अनन्त भेदसे भेदको प्राप्त हुई उन उदीर्यमान कृष्टियोंके रूपसे अवेद्यमान अधस्तन और उपरिम कृष्टि परिणमती है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है क्योंकि ये अधस्तन और उपरिम कृष्टि अपने स्वरूपका त्याग करके मध्यम कृष्टिरूपसे परिणम जाती है, यहो यहाँ संक्रम का अर्थ विवक्षित है। इसलिये अनुदीर्यमान अधस्तन और उपरिम एक-एक कृष्टि अनन्त संख्यासे युक्त उदोर्यमान सभी मध्यम कृष्टियोंमें संक्रमित होकर पररूपसे फल देती है । इस प्रकार इस गाथाके पूर्वार्धमें सूत्रका यह समुच्चयरूप अर्थ है। शंका-एक कृष्टिका अनन्त कृष्टिरूपसे परिणमना विरुद्ध है। समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वह एक कृष्टि है; सदृश धनवाले अनन्त परमाणुओंसे बनी है; इसलिये उन एकका भो अनन्त कृष्टियोंमें समयके अविरोधपूर्वक परिणमनकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं पाई जाती । ६२०० अब एक वेद्यमान कृष्टिमें अवेद्यमान अनन्त कृष्टियोंका संक्रमण सम्भव है। इस प्रकार इस अर्थ का ज्ञान करानेके लिये गाथाका उत्तरार्ध अवतीर्ण हुआ है-'पुच्वपविट्ठा णियमा' १ संकमओ ता०, आ० ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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