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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा ६ १९६ सुगमं । * (१७३) जा वग्गणा उदीरेदि अणंता तासु संकमदि एक्का। पुवपविट्ठा णियमा एक्किस्से होंति च अणंता ॥२२६॥ ६ १९७ एसा अट्ठमी भासगाहा णिरुद्धसंगहकिट्टीए वेदिज्जमाणमज्झिमबहुमागकिट्टीमुहेट्ठिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयाणमवेदिज्जमाणकिट्टीणमेदेण विहाणेण परिणमणं होदि ति एदस्म अत्थविसेसस्स णिण्णयविहाणट्ठमोइण्णा । तत्थ ताव गाहापुव्वद्धे उदीरणामस्वेग वेदिज्जमाणासु अणंतासु मज्झिमकिट्टीसु एक्कक्किस्से अणुदीरिज्जमाणहेट्ठिमोवरिमकिट्टीए परिणमणविही णिद्दिट्ठो । जाओ वग्गणाओ उदीरेदि अणंताओ तासु एक्केका अणुदीरिज्जमाणकिट्टी संकमदि त्ति पदसंबंधवसेण तत्थ तहाविहत्थणिद्देसोवलंभादो। ६ १९८ गाहापच्छद्धेण वि एक्कक्किस्से वेदिज्जमाणकिट्टीए सरूवेण अणंताणमवेदिज्जमाणकिट्टीणं ट्ठिदिक्खयेणुदयं पविसमाणाणं परिणमणविही परूविदो त्ति घेत्तव्यो । संपडि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा–'जा वग्गणा उदोरेदि' एवं भणिदे जाओ वग्गणाओ उदी दि त्ति एवं विदियाबहुवयणप्पओगे पसत्ते पुणो एत्थ गाहाए छंदो भंगो होदि ति भएण ओकारलोवं कादूण ६ १९६ यह सूत्र सुगम है। * १७३ यह क्षपक जिन अनन्त वर्गणाओं (कृष्टियों)की उदीरणा करता है उनमें अनुदीर्यमाण एक-एक कृष्टि संक्रमण करती है । तथा पहले जो कृष्टियाँ स्थितिक्षयसे उदयावलिमें प्रविष्ट होकर उदयको नहीं प्राप्त हुई हैं वे अनन्त कृष्टियां एक-एक करके स्थितिक्षयसे वेद्यमान मध्यम कृष्टिरूप होकर परिणमन करती हैं ।। २२६ ॥ ६ १९७ यह आठवीं भाष्यगाथा, विवक्षित संग्रह कृष्टिकी वेद्यमान बहुभागप्रमाण मध्यम कृष्टियोंमें अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषय करनेवाली अवेद्यमान कृष्टियोंका इस विधिसे परिणमन होता है, इस प्रकार इस अर्थविशेषका निर्णय करनेकेलिये अवतीर्ण हुई है । यहाँ पर सर्वप्रथम गाथाके पूर्वार्धमें उदीरणारूपसे वेदो जानेवाली अनन्त मध्यम कृष्टियोंमें अनुदीर्यमाण अधस्तन और उपरिम एक-एक कृष्टिके परिणमन करनेकी विधि कही है। जिन अनन्त वर्गणाओं ( कृष्टियों ) की उदीरणा होती है उनमें अनुदीर्यमाण एक-एक कृष्टि संक्रमित होती है, इस प्रकार पदोंके सम्बन्धसे उक्त गाथामें उस प्रकारके अर्थका निर्देश उपलब्ध होता है। ६ १९८ गाथाके उत्तरार्धद्वारा भी एक-एक वेद्यमान कृष्टिरूपसे स्थितिक्षयसे उदयमें प्रवेश करने वाली अनन्त अवेद्यमान कृष्टियोंकी परिणमन करनेकी विधि कही, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अब इस गाथाके अवयवोंके अर्थकी किंचित् प्ररूपणा करेंगे । यथा-'जा वग्गणा उदीरेदि' जिन वर्गणाओंकी उदीरणा करता है, इस प्रकार द्वितीया विभक्तिके बहुवचनरूप प्रयोगके प्रसक्त
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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