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________________ ८१ गा० २२५ ] $ १९३ गतार्थत्वान्नात्र किंचिद् व्याख्येयमस्ति । एवमेत्तेण पबंधेण 'जं जं खवेदि किट्टि ० से काले' त्ति एदेसिं मूलगाहाए पदाणमत्थो सत्तहिं भासगाहाहिं forest दट्ठव्वो; तत्थ 'उदीरेदि' त्ति एदेण पदेण द्विदि-अणुभागाणमुदीरणा घेत्तव्वा । 'संछुहदि' ति वि एण पदेण संकमो गहेयव्वो । पुणो 'संछुहदि उदीरेदि' त्ति इमेसिं (-हिं) चेव पदेहिं ओकड्ड ुक्कड्डुणाविहाणमणुभागपदेस मस्तियूण बंधोदय संकमाणमप्पाचहुअं च भणिदमिदि णिच्छेयव्वं । $ १९४ संपहि मूलगाहाए 'तासु अण्णासु' त्ति एदेण पच्छिमपदेण सूचिदमणुभागोदविहिं तीहिं उवरिमभास गाहाहिं मणिहिदि । तत्थ ताव अट्ठमीए भासगाहाए अवयारं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एतो अट्टमी भासगाहा । $ १९५ सुगमं । * तं जहा । $ १९३ यह सूत्र गतार्थं होनेसे इस विषय में कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है । इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा मूलगाथा के 'जं जं खवेदि किट्टि० से काले' इन पदोंका अर्थ सात भाष्यगाथाओंद्वारा निर्दिष्ट किया गया जानना चाहिये क्योंकि वहाँ पर 'उदोरेदि' इस पदद्वारा स्थिति और अनुभागको उदोरणा ग्रहण करनी चाहिये । तथा 'संछुहदि' इस पदद्वारा भी संक्रमको ग्रहण करना चाहिये । पुनः संछुहृदि उदीरेदि' इस प्रकार इन्हीं पदोंद्वारा अपकर्षणविधान और उत्कर्षणविधानका और अनुभाग तथा प्रदेशोंका आश्रय करके बन्ध, उदय और संक्रमका अल्पबहुत्व कहा गया है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये । विशेषार्थ - इस सातवीं भाष्यगाथामें उदीरणा होकर जो प्रदेशप्रचय संचित होता है वह किस विधि से संचित होता है इस विशेषताका विवरण प्रस्तुत करते हुए बतलाया है कि उपरिम स्थिति में उदयादि गुणश्रेणिमें अपकर्षण द्वारा निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशपुंज उदयस्थितिमें सबसे थोड़ा. निक्षिप्त होता है। उससे उपरम स्थिति ( द्वितीय स्थिति ) में उससे असंख्यातगुणा प्रदेशपुंज निक्षिप्त होता है। उससे उपरिम तीसरी स्थिति में दूसरी स्थितिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंज से असंख्यातगुणा प्रदेशपुंज निक्षिप्त होता है । इसी क्रमसे उदयावलीके अन्तिम समय तक जानना चाहिये । यद्यपि उदयावलिके बाहर भी गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा श्रेणिरूप से प्रदेशपु ंज उपलब्ध होता है, परन्तु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है । शेष कथन स्पष्ट ही है । $ १९४ अब मूलगाथा के 'तासु अण्णासु' इस अन्तिम पदद्वारा सूचित हुई अनुभाग के उदयकी विधिको अगली तीन भाष्यगाथाओं द्वारा कहेंगे । उनमें से सर्वप्रथम आठवीं भाष्यगाथाका अवतार करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * इससे आगे आठवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते है । $ १९५ यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । ११
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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