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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा १०० एदिस्से भासगाहाए पुव्युत्ताणमसेसाणं पुच्छाणं णिण्णयविहाणं कदं ति दट्ठव्वं । तं कधं ? 'पढमं विदियं तदियं०' एवं भणिदे कोधस्स पढमकिट्टि विदियकिडिं तदियकिट्टि च वेदेंतो वा संछुहंतो वा खवेदि त्ति पदसंबंधो । 'चरिमं वेदयमाणो' एवं भणिदे चरिमसंगहकिट्टि णिच्छयेण वेदते चव खवेदि, ण संछुहंतो त्ति सुत्तत्थसंबंधो । एत्थ चरिमसंगहकिट्टि त्ति वुत्ते सु हुमसांपराइयकिट्टीए गहणं कायव्वं, चरिमबादरसांपराइयकिट्टिए सगसरूवेण. उदयासंभवादो। 'उभयेण सेसाओ' एवं मणिदे सहुममांपराइयकिट्टि मोत्तण सेमासेमसंगहकिट्टीओ दुविहेण विहिणा खवेदि, संछहतो वेदेंतो च खवेदि त्ति वुत्तं होइ । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ । * विहासा। ६ १०१ सुगमं । * तं जहा। १०२ सुगमं । ६ १०० इस भाष्यगाथाद्वारा पूर्वोक्त अशेष पृच्छाओं के निर्णय का विधान किया गया है ऐसा यहां जानना चाहिये। शंका-वह कैसे ? समाधान--'पढमं विदियं तदियं०' ऐसा कहने पर क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टि, दूसरी संग्रह कृष्टि और तीसरी संग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ अथवा संक्रमण करता हुआ क्षय करता है ऐसा यहाँ पदोंका अर्थके साथ सम्बन्ध है। 'चरिमं वेदयमाणो' ऐसा कहने पर अन्तिम संग्रह कृष्टिको नियमपूर्वक वेदन करता हुआ ही क्षय करता है, संक्रमण करता हुआ क्षय नहीं करता, यह इस सूत्रके अर्थके साथ सम्बन्ध है। इस भाष्यगाथा में 'चरिमसंगहकिट्टि' ऐसा कहने पर सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टि को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि बादर संग्रह कृष्टिका अपने स्वरूपसे उदय होना सम्भव नहीं है। 'उभयेण सेसाओ' ऐसा कहने पर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़कर शेष सम्पूर्ण संग्रह कृष्टियोंका दो प्रकारसे क्षय करता है, अर्थात् संक्रमण करता हुआ और वेदन करता हुआ क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस भाष्यगाथाके इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६१०१ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे $ १०२ यह सूत्र सुगम है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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