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________________ गा० २१५ ] * पढमं कोहस्स किटिं वेदेंतो वा खवेदि, अधवा अवेदेतो संछुहंतो। ६१०३ कोहस्स जा पढमसंगहकिट्टी तं वेदेंतो वा खवेदि एवं भणिदे वेदेमाणो वा परपयडिसंकमेण संकामेमाणो वा खवेदि ति वृत्तं होइ, दोहिं मि पयारेहिं तिस्से खवणोवलंभादो। अथवा अवेदेंतो एवं भणिदे वेदगभावेण विणा परपयडिसंकमेण संछहंतो चेव केत्तियं पि कालं णिरुद्ध कोहपढमसंगहकिट्टि खवेदि त्ति भणिदं हादि । संपहि कदमम्मि अवत्थाविसेसे वट्टमाणो वेदेंतो खवेदि कदमम्मि वा अवत्थंतरे संछहमाणो चेव खवेदि त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स फुडीकरणट्ठमुत्तरसुत्तद्दयमाह-- * जे वे आवलियबंधा दुसमयूणा ते अवे तो खवेदि केवलं संछुहंतो चेव । 5 १०४ सगवेदगडाए खीणाए पुणो दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबंधकिट्टीणमवेदिज्जमाणाणं संछोहणाए चेव खवणदंसणादो। * संज्वलन क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करता हुआ क्षय करता है अथवा वेदन न करके संक्रमण करता हुआ क्षय करता है । 8 १०३ संज्वलन क्रोधकी जो प्रथम संग्रह कृष्टि है उसे वेदन करता हुआ क्षय करता है ऐसा कहने पर वेदन करता हुआ और परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा संक्रमण करता हुआ क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि इन दोनों प्रकारोंसे उसकी क्षपणा उपलब्ध होतो है। अथवा 'अवेदेंतो' ऐसा कहनेपर वेदकपनेके विना परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा संक्रमण करता हुआ ही कितने ही काल तक विवक्षित क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिको क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब किस अवस्थाविशेषमें विद्यमान यह क्षपक क्रोधको प्रथमसंग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है तथा किस दूसरी अवस्थामें परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, इस प्रकार इस अर्थविशेषको स्पष्ट करनेके लिये आगेके दो सूत्रोंको कहते हैं * जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध निषेक है उनको वेदन न करते हुए ही क्षय करता है, उनको केवल संक्रमण करके ही क्षय करता है । ६१०४ अपने वेदककालके क्षीण हो जानेपर उसके बाद दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धसम्बन्धी कृष्टियोंका वेदन न करते हुए संक्रमण द्वारा हो क्षय देखा जाता है । ___ विशेषार्थ-प्रथमादि ग्यारह संग्रह कृष्टियोंका वेदक काल समाप्त होनेपर द्वितीयादि संग्रहकृष्टियों का काल जब प्रारम्भ होता है तब उनके कालमें प्रथमादि संग्रह कृष्टियोंके कालमें बन्धको प्राप्त हुए दो समय कम दो आवलि प्रमाण नवकबन्ध परप्रकृतिसंक्रम द्वारा वेदे जाते है ऐसा नियम है, मात्र इसीलिये उनकी संक्रमण होकर ही निर्जरा होती है, उक्त सूत्रमें यह निर्देश किया गया है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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