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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ चारितक्खवणां * पदमसमयवेदग पहुडि जाव तिस्से किट्टीए चरिमसमयवेदगो त्ति ताव एवं किहिं वेदेंतो खवेदि । १०५ कि कारणं ? एदम्मि अवत्थंतरे णिरुद्ध कोहपढमसंगहकिट्टीए वेदगभावेण सह संकामयतमिद्धीए णिव्वाहमुवलंभादो । सहि इममेवत्थमुवसंहारमुहेण फुडीकरेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एवमेदं पि पदमकिहिं दोहिं पयारेहिं खवेदि किंचि कालं वेदेतो, किंचि कालमवेदेतो संछुहंतो । $ १०६ गयत्थमेदं सुत्तं । ण केवलं पढमसुंमहकिड्डीए एसा विही, किंतु विदियादिसंगह किट्टीणं पि खविज्जमाणाणमेसो चेत्र कमो दट्ठथ्वोत्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ ४६ * जहा पढमकिहिं खवेदि तहा विदियं तदियं चउत्थं जाव एक्का - रसमि त्ति । $ १०७ जहा कोहपढमसंगहकिट्टि दोहिं पयारेहिं खवेदि एवमेदाओ विदियादिकिट्टीओ एक्कारसमकिट्टिपज्जंताओ दुविहेण विहिणा खवेदि; दुसमयूणदोआवलियमेणवकबंध किट्टीओ संबुहंतो चैव खवेदि, तत्तो हेट्ठा सगवेदगकालन्तरे वेदेंतो * तथा क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदककालके अन्तिम समयसे लेकर उसी संग्रह कृष्टिके वेदककालके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक इस संग्रह कृष्टिको वेदन करता हुआ क्षय करता है । 8 १०५ शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि इस अवस्थामें विवक्षित क्रोधसंज्वलन संग्रह कृष्टिका वेदकपनेके साथ निर्वाधरूपसे संक्रामकपना सिद्ध होता है। अब इसो अर्थको उपसंहारमुखसे स्पष्टीकरण करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं— * इस प्रकार इस प्रथम संग्रह कृष्टिको दो प्रकारसे क्षय करता है— कुछ काल तक वेदन करता हुआ क्षय करता है और कुछ काल तक वेदन नहीं करता हुआ क्षय करता है । $ १०६ यह सूत्र गतार्थ है । केवल प्रथम संग्रह कृष्टिको यह विधि नहीं है, किन्तु क्षयको प्राप्त होनेवाली द्वितीयादि संग्रह कृष्टियोंका भी यही क्रम जानना चाहिये इस प्रकार इस बातका कथन करते हुये आगे सूत्रको कहते हैं * जिस प्रकार प्रथम कृष्टिका क्षय करता है उसी प्रकार दूसरी, तीसरी और चौथी कृष्टिसे लेकर ग्यारहवीं कृष्टि तक इन संग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है । १०७ जिस क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टिका दो प्रकारसे क्षय करता है उसी प्रकार ग्यारहवीं संग्रहकृष्टि पर्यन्त इन दूसरी आदि संग्रह कृष्टियों का दोनों प्रकारसे क्षय करता है; दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध कृष्टियोंका संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है तथा
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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