SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९ पर उससे अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिको ग्रहण न कर जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है उसका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि वह अन्तिम है । इसलिये वेदन करते हुआ ही उसका क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वेदन करते हुए ही उसका क्षय क्यों होता है ? इसके दो कारण हैंप्रथम तो दसवें गुणस्थान में संज्वलनका बन्ध नहीं होता। दूसरा उसका प्रतिग्रहान्तरका अभाव कारण है । क्षपणासम्बन्धी दूसरी मूल गाथामें बतलाया है कि जिस संग्रह कृष्टिका संक्रमण करते हुए क्षय करता है उसका नियमसे अबन्धक रहता है। इसी बातको उसकी भाष्यगाथाद्वारा और विशेषरूपसे बतलाया गया है। साथ ही सूक्ष्म साम्परायिक संग्रह कृष्टिका नियमसे अबन्धक होता है यह भी बतलाया गया है । क्षपणासम्बन्धी तीसरी मूल गाथा आशंकापरक गाथा है। इसमें जिन आशंकाओं को व्यक्त किया गया है उनका दस भाष्यगाथाओं द्वारा समाधान किया गया है। उनमें पहली आशंका यह है कि जिस-जिस संग्रह कृष्टिका क्षय करता है उस उस संग्रहकृष्टिको किस-किस प्रकारके स्थिति और अनुभागों में उदीरित करता है ? दूसरी आशंका यह है कि विवक्षित कृष्टिको अन्य कृष्टिमें संक्रमण करता हुआ किस-किस प्रकारके स्थिति और अनुभागोंसे युक्त कृष्टिमें संक्रमण करता है ? तीसरा प्रश्न कि विवक्षित समय में जिस स्थिति और अनुभागोंसे युक्त कृष्टियों में उदीरणा और संक्रमण आदि किये हैं, अनन्तर समय में क्या उन्हीं कृष्टियों में उदीरणा और संक्रमण आदि करता है अथवा अन्य कृष्टियों में करता है ? ये तीन प्रश्न हैं। इनका उक्त भाष्यगाथाओं द्वारा समाधान किया गया है । जैसा कि हम पहले निर्देश कर आये हैं कि इन प्रश्नोंका समाधान दस माध्यम से किया गया है । उनमें से पहली भाष्यगाथा का पूर्वार्ध भी पृच्छासूत्र है, उत्तरार्धमें बतलाया है कि विवक्षित संग्रह कृष्टिके अनुभागसम्बन्धी सभी भेदोंमें परन्तु उदय और उदोरणा मध्यम कृष्टिरूपसे ही होतो है । पूर्वार्धका खुलासा गया है । उनमें बतलाया है कि इस क्षपकके स्थितिबन्ध चार मास प्रमाण ही होता है, क्योंकि प्रथम समयवर्ती जो कृष्टिवेदक है उसके स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है, परन्तु उस समय इतना स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उस समय संज्वलनका चार मास प्रमाण ही होता है । स्थिति संक्रम. उदयावलिको छोड़कर शेष सब स्थितियों में होता है । उदीरणा भी उदयावलिको छोड़कर सब स्थितियों में प्रवृत्त होती है । भाष्यगाथाओं के निर्देशसूत्र नहीं । संक्रम होता है । चूर्णिसूत्रों में किया दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि यह गाथा भी पृच्छासूत्र है; इसलिये इसद्वारा पहलो भाष्यगाथामें कहे गये अर्थका ही विशेष खुलासा किया गया है। तीसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि स्थिति और अनुभागसम्बन्धी जिन कर्मप्रदेशों का पहले समय में अपकर्षण करता है उनका दूसरे समय में सदृश और असदृशरूपसे उदीरणाद्वारा प्रवेशक होता है । सदृशका अर्थ है कि जो एक कृष्टिरूपसे परिणमन कर उदयमें आते हैं वे सदृशसंज्ञावाले कहलाते हैं और असदृश का अर्थ है कि जो स्थिति और अनुभागसम्बन्धी कर्मप्रदेश अनन्त कृष्टिरूपसे परिणमन कर उदयमें आते हैं तो उनकी असदृश संज्ञा है । किन्तु यहाँ पर अनन्त कृष्टिरूपसे परिणमन कर उदयमें आते हैं ऐसा अर्थ यहाँ किया गया जानना चाहिए । चौथी भाष्यगाथा भी पृच्छासूत्र है । उसमें उत्कर्षणविषयक पृच्छा की गई है । किन्तु इसका यहाँ प्रयोग नहीं है; क्योंकि कृष्टिकारक जीवके संज्वलन कषायका उत्कर्षण नहीं होता, ऐसा नियम है ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy