SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. स्थितिषात-यह पहला क्रियाभेद है। इसमें स्थितिकाण्डक घातका काल अन्तर्मुहुर्त विवक्षित है ! २. स्थितिसत्कर्म-यह दूसरा क्रियाभेद है। इसके द्वारा स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण किया गया है। ३. उदय-यह तीसरा क्रियाभेद है ! इसके द्वारा कृष्टियोंका उदय प्रत्येक समयमें अनन्तगुणाहोन होकर प्रवृत्त होता है यह बतलाया गया है । ४. उदीरणा-यह चौथा क्रियाभेद है। इसद्वारा प्रयोगसे अपकर्षित होनेवाले स्थिति और अनुभागकी प्ररूपणा की गई है। .. ५. स्थितिकाण्डक-यह पांचवां वीचारस्थान है। इसके द्वारा स्थितिकाण्डकके प्रमाणका अवधाररण किया गया है। ६. अनुभागपात-यह छठा क्रियाभेद है । इसके द्वारा स्थितिषातका जो काल है वही इसका विवक्षित है यह बतलाया गया है। ७. स्थितिसत्कर्म-यह साता क्रियाभेद है। इसके द्वारा कृष्टिवेदकके सब सन्धियोंमें धात करनेसे शेष रहे स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका निर्देश किया गया है। ८. अनुभागसत्कर्म-यह आठवाँ क्रियाभेद है। इसके द्वारा चार संज्वलनोंके अनुभाग सत्कर्मका विचार किया गया है । ९. बन्ध-यह नोवा क्रियाभेद है । इसके द्वारा कृष्टिवेदकके सब सन्धियोंमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणका निश्चय किया गया है। १०. बन्धपरिहानि-यह दसवां क्रियाभेद है। इसके द्वारा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी परिहानिका विचार किया गया है। इस प्रकार इन दस क्रियाभेदोंद्वारा मोहनीय कर्मकी विवक्षित प्ररूपणा प्रतिबद्ध है। शेष कर्मोकी प्ररूपणा इसी विधिसे जान लेनी चाहिये। आगे क्षपणासम्बन्धी चार मूल गाथाओं और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली भाष्यगाथाओंकी प्ररूपणा की गई है । यह क्षपक कृष्टियोंका क्या वेदन करता हुआ या क्या संक्रमण करता हुआ या क्या दोनों करता हुआ क्षय करता है ? अथवा क्या आनुपूर्वीसे क्षय करता है या आनुपूर्वीके बिना क्षय करता है ? इस मूल गाथाकी एक भाष्यगाथा है। उसमें बतलाया गया है कि क्रोध संज्वलनकी प्रथम, द्वितीय और तीसरी संग्रहकृष्टिको क्रोध संज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिको वेदन करता हुआ और पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण करता हुआ क्षय करता है । यह तो सामान्य नियम है। विशेष बात यह है कि संज्वलन क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको वेदन नहीं करता हुआ भी पर-प्रकृतिरूपसे संक्रमण करता हुआ भी कितने ही काल तक क्षय करता है। खुलासा इस प्रकार है कि वेदक कालके समाप्त हो जानेपर जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध निषेक हैं उनका वेदन न करते हुए संक्रमणद्वारा ही क्षय करता है। यह प्रथम संग्रहकृष्टिकी क्षपणाकी विधि है। इसी प्रकार ग्यारह संग्रहकृष्टियों तक इस विधिको जान लेना चाहिये। . लोभसंज्वलनकी जो बारहवीं संग्रहकृष्टि है उसका अपने रूपसे विनाश नहीं होता। अब उसका क्षय किस प्रकार होता है यह बतलाते हुए लिखा है कि 'चरिमं वेदेमाणो' ऐसा कहने
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy