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________________ ९६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारितक्खवणा * (१७८) समयणा च पविट्ठा आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुण्णा जं वेदयदे एवं दो संकमे होंति ॥२३१॥ ९ २३१ एसा बिदियभासगाहा किट्टीदो किट्टीअंतरं संकममाणस्स संधिविसये पुव्वुत्तरसंगह किट्टीणमा वलियपविट्ठस्स पवेसगस्स पमाणावहारणट्टमोइण्णा । तत्थ ताव गाहापुवद्वेण पुन्ववेदिदाए किट्टीए समयूणावलियमे ताणमुच्छ्ट्टिावलियसंबंधीणं गुणसेढिगोबुच्छाणं संभवो णिद्दिट्ठो । पच्छद्वेणवि एहिमोकड्डियूण वेदिज्जमाना संपुण्णावलियमेत्ताणं गोवच्छाणमुदयावलियन्तरे संभवो पदुप्पाइदो दट्ठव्वो । संपहि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा -- ' समयूणा च पविट्ठा' एवं भणिदे समयणा आवलिया उदयावलियन्तरं पविट्ठा त्ति पुव्ववेदिदकिट्टीए संपूण्णा च आवलिया पविट्ठा भवदिजं संगह किट्टिमेण्हिमोकड्डियूण वेदयदि तिस्से 'एवं दो संकमे होंति' एवं भणिदे एवमेदाओ दो आवलियाओ संकमे भवंति, एगकिट्टिं वेदेदूण पुणो अण्णकट्टिमोकड्डियूण वेदेमाणस्स तम्मि संधीए दोआवलियाओ भवंति णाण्णत्थे तिवृत्तं होइ । अथवा संकमे किट्टीणं खवणाए एदम्मि संधिविसेसे एदाओ दो * (१७८) पूर्व में वेदी गई संग्रह कृष्टिके और तत्काल वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टि के सन्धिस्थान में प्रथम संग्रहकृष्टिकी एक समय कम एक आवली उदयावलिमें प्रविष्ट होती है तथा जिस संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके इस समय वेदन करता है उसकी पूरी आवली उदयावलिमें प्रविष्ट होती है इस प्रकार दो आवलियाँ संक्रम में होतो हैं ॥२३१॥ $ २३१ यह दूसरी भाष्यगाथा एक संग्रहकृष्टिसे दूसरी संग्रहकृष्टिके अन्तरमें संक्रम करनेवाले जीवके सन्धिस्थान में पूर्व और उत्तर संग्रहकृष्टियोंके आवलिमें प्रविष्ट हुए प्रवेशक जीवके प्रमाणका अवधारण करनेकेलिये आई है । उसमें सर्वप्रथम गाथा के पूर्वार्धद्वारा पहले वेदी गई संग्रह कृष्टिके एक समय कम आवलिप्रमाण उच्छिष्टावलिसे सम्बन्ध रखनेवाली गुणश्रेणि गोपुच्छाएँ सम्भव हैं, यह निर्देश किया गया है। तथा उत्तरार्ध द्वारा भी इस समय अपकर्षण करके वेदी जानेवाली सम्पूर्ण आवलिप्रमाण गोपुच्छाएँ उदयावलिके भीतर सम्भव हैं यह प्रतिपादन किया गया जानना चाहिये। अब इस गाथा के अवयवोंके अर्थकी थोड़े में प्ररूपणा करेंगे । यथा - 'समयूणा च पविट्ठा' ऐसा कहने पर पहले वेदी गई संग्रह कृष्टिकी एक समय कम आवलि उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुई तथा जिस संग्रहकृष्टिको इस समय अपकर्षण करके वेदन करता है सम्पूर्ण आवलि उदयावलिमें प्रविष्ट होती है, इस प्रकार 'एवं दो संकमे होंति' ऐसा कहने पर इस प्रकार ये दो आवलियाँ संक्रममें होती हैं। इस प्रकार एक संग्रह कृष्टिको वेदन करके पुनः अन्य संगह कृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करने वालेके उस सन्धिमें दो आवलियाँ होती हैं, अन्यत्र नहीं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा संक्रम में अर्थात् कृष्टियोंकी क्षपणासम्बन्धी इस सन्धि विशेष में
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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