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________________ १६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार भावेण ठवेदि ति एसो एत्थ सुत्तत्थसम्भावो। सुत्ते अणिहिट्ठो एवंविहो विसेसो कधमवगम्मइ त्ति णासंका एत्य कायव्वा ! वक्खाणादो तहाविहविसेसपडिवत्तीदो । * तदो अंतोमुहुत्तेग बावरकायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरु भइ। ६ ३५७ एस्थ वि बादरकायजोगेण वावरंतो चेव अंतोमुहुत्तेण कालेण तमेव बादरकायजोगं सुहुमवियप्पे ठवेद्ग णिरु भइ त्ति सुत्तत्थसंबंधो, सुहुमणिगादजहण्णजोगादो वि असंखेज्जगुणहीणसत्तीए परिणमिय सुहुममावेण तस्स एदम्मि विसये पवृत्तिणियमदंसणादो । अत्रोपयोगिनौ श्लोको पंचेन्द्रियोऽप्यसंज्ञी वः पर्याप्तो जपन्ययोगी स्यात् । णिरुणद्धि मनोयोगं ततोऽप्यसंख्यातगुणहीनम् ॥१॥ द्वीन्द्रियसाधारणयोर्वागुच्छ्वासावधो जयति तद्वत् । पनकस्य काययोग जघन्यपर्याप्तकस्याधः ॥२॥ इति । शंका-सूत्रमें निर्दिष्ट नहीं किया गया इस प्रकारका विशेष कैसे जाना जाता है ? समाधान-इस प्रकारकी आशंका यहां नहीं करनी चाहिये, क्योंकि व्याख्यानसे उस प्रकारके विशेषका ज्ञान होता है। * उसके बाद अन्तम हर्तकालसे बाहर काययोगकेद्वारा उसी बादर काययोगका निरोध करता है। ६ ३५७ यहाँपर भी बादर काययोगसे व्यापार करता हुआ ही अन्तमुहूर्त कालद्वारा उसो बादरकाययोगको सूक्ष्मभेदमें स्थापितकर निरोध करता है; यह सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है, क्योंकि सूक्ष्म निगोदके जघन्य योगसे भी असंख्यातगुणी होन शक्तिरूपसे परिणमकर सूक्ष्मरूपसे उसकी इस स्थानमें प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है । यहाँपर उपयोगी दो श्लोक हैं जो असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव जघन्य योगसे युक्त होता है उससे भी असंख्यातगुणे होन मनोयोगका केवली जिन निरोध करता है ॥१॥ द्वीन्द्रिय जीव और साधारण क्रमसे वचनयोग और उच्छवासको जिस प्रकार धारण करते हैं उनके समान उनसे भी कम दोनों योगोंको केवलो भगवान् जीतते हैं ? जघन्य पर्याप्तक जिसप्रकार काययोगको धारण करते हैं उससे भी कम काययोगको केवली भगवान् जीतते हैं ॥२॥ १. आ० प्रती भागेण इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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