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________________ जोगनिरोहकिरिया ] १६३ ६ ३५४ एवमंतोमुहुत्तमेत्तकालं बादरकायजोगेण वट्टमाणो बादग्मणजोगसत्ति णिरुभियण तदो अंतोमुहुत्तेण तमेव बादरकायजोगमवट्ठभणं कादण बादरवचिजोगसत्तिं पि णिरुंभदि ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ-- ___* तदो अंतोमुहुत्तण बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरु भइ। ६३५५ एत्थ बादरवचिजोगो त्ति वृत्ते बीइंदियपज्जत्तस्स सव्वजहण्णवचिजोगप्पहुडिउवरिमजोगसत्तीए गहणं कायव्वं । तं रुभियण बीइदियपज्जत्तजहण्णवचिजागादो हेट्ठा असंखेज्जगुणहीणसरूवेण सुहुमभावेण ठवेदि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स मावत्यो। ___ * तदो अंतोमुटुत्तण बादरकायजोगेण बादरउस्सासणिस्सासं णि भइ। ६ ३५६ एत्थ वि बादरउस्सासणिस्सासो त्ति भणिदे सुहुमणिगोदणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स आणावाणपज्जत्तीए पज्जत्तयस्स सव्वजहण्णउस्सासणिस्साससत्तीदो असंखेज्जगुणसण्णिपंचिदियपाओग्गउस्सासणिस्सासपरिप्फंदस्स गहणं कायव्वं । तं णिरंभियण सव्वजहण्णसुहुमणिगोदउस्सासणिस्साससत्तीदो हेट्ठा असंखेज्जगुणहाणीए सुहुम ६३५४ इस प्रकार अन्तमुहूर्तप्रमाण कालतक बादर काययोगके रूपसे विद्यमान केवली जिन बादर मनोयोगकी शक्तिका निरोध करके तदनन्तर अन्तमुहूर्तप्रमाण कालकेद्वारा उसी बादर काययोगका अवलम्बन करके बादर वचनयोगको शक्तिका भी निरोध करता है ऐसा प्रतिपादन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * उसके बाद अन्तर्मुहूर्त कालसे बादरकाययोगद्वारा बादर वचनयोगका निरोध करता है। १३५५ यहाँपर बादर वचनयोग ऐसा कहनेपर द्वीन्द्रिय पर्याप्तके सबसे जघन्य वचनयोग आदि उपरिम योगशक्तिका ग्रहण करना चाहिये। उसका निरोध करके उसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य वचनयोगसे नीचे असंख्यात गुणहीन सूक्ष्मरूपसे स्थापित करता है, इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है। * उसके बाद अन्तमुहर्तकालसे वादर काययोगद्वारा बादर उच्छवास-निःश्वास का निरोध करता है। 8 ३५६ यहाँपर भी बादर उच्छ्वास-निःश्वास ऐसा कहनेपर सूक्ष्म निगोद निवृत्तिपर्याप्त जीवके अनापानपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए सबसे जघन्य उच्छ्वास-निःश्वासशक्तिसे असंख्यातगुणो संज्ञीपञ्चेन्द्रियके योग्य उच्छवास-निःश्वासरूप परिस्पन्दका ग्रहण करना चाहिये । उसका निरोधकर उसे सबसे जघन्य सूक्ष्मनिगोदकी उच्छ्वास-निःश्वासशक्तिसे नीचे असंख्यातगुणी हीन सूक्ष्मभावसे स्थापित करता है, इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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