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जोगनिरोहकिरिया
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९ ३५८ एवं जहाकमं बादरमणजोग - बादरवचिनोग- बादर उस्मासणिस्सास- बादरकायजोगसत्तीओ णिरुभियण सुहुमपरिष्कंदसत्तीओ एदेसिमवत्तसरूवेण परिसेसिय पुणो सुहुमका जोगवावारेण सुहुमसत्तीओ वि तेसिमेदीए परिवाडीए णिरुभदि जाणावणमुरिमं सुत्तपबंधमाह -
* तदो अंनोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहममणजोगं णिरु भइ । ९ ३५९ एत्थ सुहुममणजोगा ति मणिदे सणिपंचिदिय पज्जत्तयस्स सव्वजहण्णमणजोग परिणामादो असंखंज्जगुणहीणस्स अवत्तव्वसरूवस्स दव्वमणोणिबंधणजीवपदेसपरिष्कंदस्स गहणं कायव्वं । तं जिरुभदि विणासेदिति वृत्तं हाइ
* तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुमबचिजोगं णिरु भइ । $ ३६० एत्थ वि सुहुमवचिजोगो त्ति भणिदे बीइ दियपज्जत्तयस्स सव्वजहण्णवचिजोगसत्तीदा हेट्ट्ठा असंखेज्जगुणहीणसरूवो गहेयव्वो । सुगममण्णं ।
* तदो अंतोमुहुत्तण सुहुमकायजोगेण सुहुमउस्सासं णिरु भइ ।
३५८ इस प्रकार यथाक्रम बादर मनोयोग, बादर वचनयोग, बादर उच्छ्वास- निःश्वास और बादर काययोगकी शक्तियोंका निरोध करके इन योगोंको सूक्ष्मपरिस्पन्दरूप शक्तियोंको शेष करके पुनः सूक्ष्म काययोगके व्यापारद्वारा सूक्ष्म शक्तियों को भी उनका इस परिपाटी के अनुसार निरोध करते हैं, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म काययोगकेद्वारा सूक्ष्म मनोयोगका निरोध करता है ।
३५९ यहाँपर सूक्ष्मयोग ऐसा कहनेपर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त के सबसे जघन्य मनोयोग परिणामसे असंख्यातगुणा हीन अवक्तव्त्रस्वरूप द्रव्य मननिमित्तक जीवप्रदेश परिस्पन्दका ग्रहण करना चाहिये । उसका निरोध करता है-नाश करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* उसके बाद अन्तर्मुहूर्त कालसे सूक्ष्म काययोगकेद्वारा सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करता है ।
§ ३६० यहाँपर भो सूक्ष्म वचनयोग ऐसा कहनेपर द्वीन्द्रियपर्याप्तक के सबसे जघन्य वचन योगशक्ति से नीचे असंख्यातगुणो होनरूप वचनशक्ति ग्रहण करनी चाहिये । अन्य शेष कथन सुगम है ।
* उसके बाद अन्तर्मुहूर्त कालसे सूक्ष्मकाययोगकेद्वारा सूक्ष्म उच्छ्वासका निरोध करता है ।