SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पच्छिमखंध -अत्याहियार $ ३६१ एत्थ वि उस्सासमत्तीए सुहुमभावो सुहुमणिगोदपज्जत्तयस्स सव्वजहण्णं । तप्परिणामादो हेट्ठा असंखेज्जगुणहाणीए दट्ठव्वो । एवमेसो जोगणिरोह केवलिसुहुमकायजोगेण वावरंतो मण वयण - उस्सासणिस्सासाणं सुहुमसत्तीओ वि जहाउत्तेण कमेण णिरुभियूण पुणो हुमकायजोगं पि णिरुभमाणो इमाणि करणाणि जोगणिरोहणिबंधणाणि करोदिति पदुपायणमुवरिमो सुत्तपबंधो १६६ * तदो अंतोतंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिरुभमाणो इमाणिकरणाणि करेदि । $ ३६२ ततोऽन्तर्मुहूर्तं गत्वा सूक्ष्मकाययोगावष्टमेन तमेव सूक्ष्मकाययोगं निरोद्धुकामः तत्र तावदिमानि करणान्यनन्तर - निर्देश्यमाणान्यबुद्धिपूर्वमेव प्रवर्तयतीत्युक्तं भवति । कानि पुनस्तानि करणानीत्याशंकायामाह - * पढमसमये अपव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाणं हेट्ठदो । ९ ३६३ एत्तोपुव्वावस्थाए पुहुमकायपरिष्कंदसत्ती सुहुमणिगोदजहण्णजोगादो असंखेज्जगुणहाणीए परिणमिय पुव्वफद्दयसरूवा चेव होदूण पयट्टमाणा एण्डिं तत्तो वि सुट्टु ओवट्ठेयूण अपुव्वफद्दयायारेण परिणामिज्जदिति । एदिस्से किरियाए अन्व 8 ३६१ यहां भी उच्छ्वास शक्तिका सूक्ष्मपना सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक जीवके सबसे जघन्य होता है । उसरूप परिणामसे नीचे इस सयोगि केवलीकी उच्छ्वासशक्ति असंख्यातगुणी हीनरूपसे जाननी चाहिये । इस प्रकार यह योगनिरोध करनेवाला केवली जिन सूक्ष्म काययोगकेद्वारा परिस्पन्दात्मक क्रिया करते हुए मन, वचन और उच्छ्वास - निःश्वासकी सूक्ष्म शक्तियों का भी यथोक्तक्रमसे निरोध करके पुनः सूक्ष्मकाययोगका भी निरोध करते हुए योगनिरोधनिमित्तक इन करणोंको करता है, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये अगला सूत्रप्रबन्ध आया है * उसके बाद अन्तर्मुहूर्तकाल जाकर सूक्ष्मकाययोगकेद्वारा सूक्ष्मकाययोगका निरोध करता हुआ इन करणोंको करता है । § ३६२ उसके बाद अन्तर्मुहूर्तं काल जाकर सूक्ष्म काययोगके बलसे उसी सूक्ष्म काययोगका निरोध करता हुआ वहाँ सर्वप्रथम अनन्तर कहे जानेवाले इन करणोंको अबुद्धिपूर्वक ही प्रवृत्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु वे करण कौन हैं ऐसी आशंका होनेपर कहते हैं* प्रथम समय में पूर्व स्पर्धकों को नीचे करके अपूर्व स्पर्धकों को करता है I ९ ३६३ पूर्व स्पर्धकोंसे नीचे इससे पूर्व अवस्था में सूक्ष्म काययोगकी परिस्पन्दरूप शक्तिको सूक्ष्म निगोदके जघन्य योगसे असंख्यातगुणी हानिरूपसे परिणमाकर पूर्व स्पर्धकस्वरूप ही होकर प्रवृत्त होती हुई इस समय उससे भी अच्छी तरह अपवर्तना करके अपूर्वं स्पर्धक रूपसे परिणमाता है। इस क्रियाकी अपूर्व - स्पर्धककरण संज्ञा है । अब इस करणकी प्ररूपणा करनेकेलिये यहाँपर
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy