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________________ जोगनिरोहकिरिया ] १६७ फद्दयकरणसण्णा । संपहि एदस्स करणस्स परूवणट्ठमेत्थ ताव पुव्वफद्दयाणं सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तं रचणा कायव्वा । एव कदे सुहुमणिगोदजहण्णट्ठाणपडिबद्धफद्दएहिंतो एदाणि फद्दवाणि असंखेज्जगुणहीणाणि होदूण चिटुंति, अण्णहा तत्तो एदस्स सुहुमभावाण ववत्तीदो। एवं दृविदाणमेदेसि पुयफद्दयाणं हेढदो असंखेज्जगुणहाणीए ओहद्देदूण अपुव्वफद्दयाणि णिवत्तेमाणस्स परूवणापबंधमुवरिमसुत्ताणुसारेण बत्तइस्सामो * आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदा मसंखेज्जदिभागमोकडदि । $ ३६४ पुवफद्दएहितो जीवपदेसे ओकड्डियूण अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तेमाणो पुत्रफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागसरूवेणोकट्टदि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । पुव्वफद्दयादिवग्गणाविभागपडिच्छेदेहितो असंखेज्जगुणहीणाविभागपडिच्छेदसरूवेण जीवपदेसे ओकड्डियण अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तेदि त्ति वुत्तं होदि, अपुवफद्दयचरिमवग्गणाविभागपडिच्छेदाणं पि पुव्वफद्दयादिवग्गणादो असंखेज्जगुणहाणि-णियमदंसणादो । एत्थ हाणिभागहारो पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेत्तो । * जीवपदेसाणं च असंखेजविभागमोकड्डदि। सर्वप्रथम पूर्व स्पर्धकोंकी जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण रचना करनी चाहिये । ऐसा करनेपर सूक्ष्म निगोद जोवके जघन्य स्थानसे सम्बन्ध रखनेवाले स्पर्धकोंसे ये स्पर्धक असंख्यातगुणे होन होकर अवस्थित हैं, अन्यथा उससे ( सूक्ष्मनिगोदजीवके जघन्य स्थानसम्बन्धी स्पर्धकोंसे ) इसका (सयोगिकेवलीके अपूर्व-स्पर्धकोंका) सूक्ष्मपना नहीं बन सकता। इस प्रकार स्थापित इन पूर्वस्पर्धकोंके नीचे असंख्यातगुणहानिरूप अपकर्षितकर अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करते हुए योगनिरोधकरनेवाले इस सयोगिकेवली जिनके प्ररूपणाप्रबन्धको अगले सूत्रके अनुसार बतलावेंगे - * [योगनिरोध करनेवाला यह सयोगिकेवली जीव] पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है। ६३६४ पूर्वस्पर्धकोंसे जीव-प्रदेशोंका अपकर्षण करके अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता हुआ पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोंका असंख्यातवें भाग रूपसे अपकर्षण करता है । इस प्रकार इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे असंख्यातगुणे हीन अविभागप्रतिच्छेदरूपसे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण करके अपूर्व स्पर्धकोंको रचना करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि अपूर्व स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंमें पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणासे असंख्यात गणहानिका नियम देखा जाता है। यहाँपर असंख्यात गुणहानिका भागहार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है * और वह जीव जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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