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________________ १६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पच्छिमखंध-अत्याहियार ६३६५पुव्वफद्दयसव्ववग्गणाहिंतोजीवपदेसाणमसंखेज्जदिमागमोकणामागहारपडिभागेणोकट्टियण पुन्वत्ताविभागपलिच्छेदसत्तीए परिणामिय ताणि अपुव्वफद्दयाणि णिवत्तेदि त्ति भणिदं होदि । एवं च ओकडिदाणं जीवपदेसाणमपुव्वफद्दयेसु णिसेगविण्णासक्कमो वच्चदे; तं जहा-पढमसमये जीवपदेसाणमसखेज्जदिभागमोकड्डियूण अपुव्वफयाणामादिवग्गणाए जीवपदेसबहुगे णिसिंचदि, सवजहण्णसत्तीए परिणमंताणं बहुत्तसंभवे विरोहाभावादो । बिदियाए वग्गणाए जीवपदेसे विसेसहीणे णिसिंचदि सेढीए असंखेज्जभागपडिभागेण एव णिसिंचमाणो गच्छइ जाव अपुन्वफद्दयाणं चरिमवग्गणा त्ति । पुणो अपुव्वफद्दयचरिमवग्गणादो पुत्रफद्दयाणमादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणे'लीलपदेसे णिचिदि। एत्थ हाणिगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो होतो वि सादिरेओ ओकड़डुक्कड्डणमागहारपमाणो त्ति दट्ठन्वो । एदस्स कारणगवेसणा सुगमा। तत्तो उवरि समयाविरोहेण विसेसहाणी--जीवपदेसविण्णासकमो अणुगंतव्यो । एवमेसा अपुव्वफयकारगपढमसमये परूवणा। एवं बिदियादिसमयेसु वि जाव अतोमुहुत्तं ताव अपुवफद्दयाणि सम्याविरोहेण णिवत्तेदि त्ति इममत्थं फुडीकरेमाणों मुत्तमत्त भणइ-- * एवमंतोमुहुत्तमपुव्वफद्दयाणि करेदि । ६ ३६५ पूर्व स्पर्धककी सब वर्गणाओंसे जीवप्रदेशोंके असंख्यातवेंका अपकर्षण भागहाररूप प्रतिभागसे अपकर्षण करके पूर्वोक्त अविभागप्रतिच्छेदशक्तिरूपसे परिणमाकर उन अपूर्व स्पर्धकों की रचना करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और इस प्रकार अपकर्षित किये गये जीवप्रदेशों का अपूर्व स्पर्धकोंमें निषेक-विन्यासका क्रम कहते हैं । यथा-प्रथम समयमें जीवप्रदेशोंके अख्यातवें भागका अपकर्षण करके अपूर्वस्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें जीवप्रदेशोंके बहुभागका सिंचन करता है, क्योंकि सबसे जघन्य शक्तिमें परिणमन करनेवाले जीवदेशोंके बहुत सम्भव होनेमें विरोधका अभाव है। दूसरी वर्गणामें विशेषहीन जीवप्रदेशोंको जगश्रेणिके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके अनुसार सिंचित करता है। इस प्रकार सिंचन करता हुआ अपूर्व स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक जाता है। पनः अपर्व स्पर्धककी अन्तिम वर्गणासे पूर्व स्पर्धकों की आदि वर्गणामें असंख्यातगणहीन जीवप्रदेशोंको सिंचित करता है। यहाँपर हानिका गणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता हुआ भी साधिक अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिये । इसके कारणको गवेषणा सुगम है। उससे आगे समयके अविरोधपूर्वक विशेष हानिरूप जीवप्रदेशोंके विन्यासक्रमको जानना चाहिये । इस प्रकार यह प्ररूपणा अपूर्व स्पर्धकोंको करनेवालेके प्रथम समयमें होती है। इसी प्रकार द्वितीय आदि समयोंमें भी अन्तमुहूर्त कालतक अपूर्व स्पर्धकोंको समयके अविरोधपूर्वक रचना करता है। इस प्रकार इस अथको स्पष्ट करते हुये आगेके सूत्रको कहते हैं * इस प्रकार अन्तमुहूर्त कालतक अपूर्व स्पर्धकोंको करता है। १. प्रेसकापीप्रती-होणो इति पाठः।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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