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________________ शास्त्रार्थसंग्रहः ] 1 पूर्वाजितं क्षपयतो यथोक्तैः क्षयहेतुभिः । संसारबीजं कात्स्येंन मोहनीयः प्रहीयते ॥ ७ ॥ ततोऽन्तरायज्ञानघ्नदर्शनघ्नान्यनन्तरम् प्रीयन्तेऽस्य युगपत्त्रीणि कर्माण्यशेषतः ॥ ८ ॥ गर्भसूच्यां विनष्टायां यथा बालो' विनश्यति । तथा कर्मक्षयं याति मीहनीय क्षयं गते ॥ ९ ॥ ततः क्षीणचतुष्कर्मा प्राप्तोऽथाख्यातसंयमम् । बीजबन्धननिमुक्तः स्नातकः परमेश्वरः ।। १० ॥ शेषकर्मफलोपेक्षः` शुद्धो बुद्धो निरामयः । सर्वशः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली ॥ ११ ॥ कृत्स्नकर्मक्षयादूर्ध्वं निर्वाणमधिगच्छति । यथा दग्वेन्धनो वह्निर्निरुपादानसन्ततिः ॥ १२ ॥ तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगासङ्गत्वाद्बन्धच्छेदोर्ध्वगौरवैः ॥ १३ ॥ १९१ तथा यथोक्त कर्मोके क्षयमें हेतुरूप कारणोंकेद्वारा संसारका मूल कारण मोहनीय कर्म पूरी तरह नष्ट हो जाता है ॥ ७ ॥ तदनन्तर इस जीवके अन्तरायकर्म, ज्ञानावरणकर्म और दर्शनावरणकर्म ये तीनों कर्म एक साथ पूरी तरह क्षयको प्राप्त हो जाते हैं ।। ८ । गर्भसूची के विनष्ट हो जानेपर जैसे बालक मर जाता है वैसे ही मोहनीय कर्मके क्षय हो जानेपर समस्त कर्म क्षयको प्राप्त हो जाते हैं ।। ९ ॥ उसके बाद जिसने चार घातिकर्मोंका क्षय कर लिया है और जो अथाख्यात संयमको प्राप्त हुआ है वह बोजबन्धनसे निमुक्त, स्नातक एवं परमेश्वर हो जाता है ॥१०॥ तथा वह शेष कर्मों के फलकी उपेक्षासहित होता हुआ शुद्ध, बुद्ध, निरामय (नीरोग) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी केवली जिन होता है ॥ ११ ॥ उसके बाद यह जीव शेष कर्मोंका क्षय हो जानेसे निर्वाणको प्राप्त होता है जैसे कि ईंधन के दग्ध हो जानेपर उपादान सन्ततिसे रहित अग्नि बुझ जाती है ।। १२ ।। तदनन्तर ही वह जीव पूर्वप्रयोग, असंगपना, बन्धच्छेद तथा ऊर्ध्वगौरवरूप धर्मके कारण लोकके अन्त तक जाता है ॥१३॥ १. आ० प्रती ० नालो इति पाठः । २. भा० ख० प्रत्योः फलापेक्षः इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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