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________________ १९. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार णामस्तदाकार एवमूर्तिः समयेन लोकशिखरमधितिष्ठन्नात्यंतिकमैकान्तिकं निरतिशयं निरुपमं निर्वाणसुखमव्याबाधमचलमनामयमवाप्य शीतीभृतो निवृतीति शास्त्रार्थसंग्रहः । उक्तं च-- अनादिकर्मसम्बन्धपरतंत्रो विमूढधीः । संसारचक्रमारूढो वंभ्रमीत्यात्मसारथिः ॥ १ ॥ स त्वन्तर्बाह्यहेतुभ्यां मन्यात्मा लब्धचेतनः । सम्यग्दर्शनसद्रत्नमादत्ते मुक्तिकारणम् ।। २ ।। मिथ्यात्वकईमापायात्प्रसन्नतरमानसः । ततो जीवादितत्त्वानां याथात्म्यमधिगच्छति ॥ ३ ॥ अहं ममात्रवो बन्धः संवरो निर्जरा क्षयः।। कर्मणामिति तत्वार्थस्तदा समवबुध्यते ॥ ४ ॥ हेयोपादेयतत्त्वज्ञो मुमुक्षुः शुभभावनः । संसारिकेषु भोगेषु विरज्यति मुहुर्मुहुः ॥ ५ ॥ 'एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो भृशं । निरास्रवत्वाच्छिन्नायां नवायां कर्मसन्ततौ ।। ६॥ किंचित् न्यून जीवधनपरिणामवाला तदाकार ही अमूर्तिरूपसे लोकके शिखरको प्राप्त होता हुआ आत्यन्तिक, ऐकान्तिक, निरतिशय, निरुपम, अव्याबाध, अचल और आमयरहित निर्वाण सुखको प्राप्तकर परमशान्त दशाको प्राप्त होता हुआ निर्वाणको प्राप्त होता है, यह पूरे शास्त्रका समुच्चयरूप अथं है। कहा है अनादि कालसे एक क्षेत्रावगाहरूपसे चले आ रहे कर्मों के सम्बन्धसे परतन्त्र हुआ यह अज्ञानी जीव सारथि बनकर संसाररूपी चक्रपर आरुढ़ हुआ घूमता रहता है ॥ १ ॥ किन्तु जो भव्यात्मा है और जिसने आत्माके अस्तित्वको प्राप्त कर लिया है वह अन्तरंग और बहिरंग हेतुओंकेद्वारा मुक्तिके कारणरूप सम्यग्दर्शनरूपी सच्चे रत्नको प्राप्त करता है ॥२॥ मिथ्यात्वरूपी कीचड़के दूर होनेसे जिसका मानस अत्यन्त प्रसन्न हुआ है वह इस कारण जीवादि पदार्थोके यथार्थपनेको जाननेमें समर्थ होता है ।। ३ ॥ में ज्ञान-दर्शनरूप चेतनमूर्ति आत्मा हूँ, मेरे कर्मोंका आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और कर्मोंका पूरा क्षयरूप मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ भले प्रकार जानने में आते हैं ॥ ४ ॥ जिस मुमुक्षुने हेय और उपादेय तत्त्वको जान लिया है तथा जो शुभ भावनावाला है वही सांसारिक भोगोंसे बार-बार विरक्त होता है ।। ५ ।। इस प्रकार तत्त्वके परिज्ञानवश विरक्त हुए आत्माके निरास्रव हो जानेके कारण नई कर्मपरम्परा छिन्न हो जाती है अर्थात् नई कर्मपरम्पराका आस्रव रुक जाता है ।। ६ ।। १. इत आरम्यानेतनाः श्लोकाः तत्त्वार्थसारे मोक्षप्रकरणे २० तमाङ्कादुपलम्यन्ते ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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