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________________ शास्त्रार्थसंग्रहः ] पूर्वोपचितं कर्म निर्जरयन् श्रेण्यारोहणात्पूर्वमेव क्षपितसप्तप्रकृतिकः संयमानुपालनविशुद्धिस्थानविशेषाणामुत्तरोत्तरप्रतिपत्या घटमानोऽत्यन्त प्रहीणार्त्तरौद्रध्यानाशुभलेश्यापरिणामः सुविशुद्धलेश्याधर्मध्यानपरिचयादवाप्तसमाधिबलः, उत्तमसंहननचरिमोत्तमदेहधारी मवन् उपशमश्रेणि प्रायोग्यान् परिणामान् यथाक्रममुल्लंघ्य मोक्षनिःश्रेणिनिविशेषां क्षपकश्रेणिमारोहंस्तत्रापूर्वानिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्परायक्षपक- गुणस्थानेषु प्रथमशुक्लध्यानेन प्रवर्तमानः पूर्वोक्तेनानुक्रमेण मोहनीयं क्षयं नीत्वा ततः क्षीणकषायभावमास्थाय तत्र द्वितीय शुक्लध्यानाग्निना ज्ञानदृगावरणान्तरायप्रकृतीरपुनर्भवाय पूर्वोदितेन विधिना भस्मसाद्भावमानीय स्वयंभूत्वपर्यायेण परिणतः सर्वज्ञेयज्ञानलक्ष्मीमनुभूय ततो यथाक्रममसंख्यातगुणश्रेण्या कर्मप्रदेशान्निर्जरयन् भव्यजनहितोपदेशाय विहृत्योपसंहृतविहारोऽन्तर्मुहूर्त शेषायुष्को यदा भवति तदा तीर्थकर केवली इतरकेवली वा समुद्धातेनान्यथा वा समीकृताघातिचतुष्टय स्थिति विशेषस्तृतीयशुक्लध्यानेन विशुद्धयोगत्वादन्तर्मुहूर्तमयोगिगुणस्थाने शैलेश्य मलेश्यभावेन प्रतिपद्य ततः शेषकर्मक्षयाद्भवबंधननिर्मुको निर्दग्धपूर्वोपादानेन्धनो निरुपदा इव वह्निः पूर्वोपात्तभववियोगात् हेत्वभावाच्चोत्तरस्याप्रादुर्भावादनन्त संसारदुःखमतिक्रान्तश्चरमदेहात् किंचिन्न्यूनजीवधन परि १८९ आत्मारूप होता हुआ निरास्रव होनेसे नये कर्मोंके उपचयसे रहित होता हुआ, परीषहजय और बाह्याम्यन्तर तपके अनुष्ठान के अनुभवसे पूर्व में उपचित हुए कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ, श्रेणिपर आरोहण करनेके पूर्व ही दर्शनमोहनीयकी तीन और चार अनन्तानुबन्धी इन सात मोहनीयकर्मसम्बन्धी प्रकृतियों का क्षय करके संयमका अनुपालन और विशुद्धिस्थान विशेषोंकी उत्तरोत्तर प्राप्तिसे आर्तध्यान, रौद्रध्यान और अशुभ लेश्या परिणामोंको अत्यन्त क्षीण करके सुविशुद्ध लेश्यारूप धर्म्यध्यान परिणाम से समाधिको प्राप्त होकर उत्तम संहनन, उत्तम चारित्र और उत्तम देहका धारी होता हुआ उपशमश्रेणके योग्य परिणामोंको क्रमसे उल्लंघन करके मोक्षकी श्रोणिरूप भेदरहित क्षपक श्रेणिपर आरोहण करता हुआ उसमें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायरूप क्षपक गुणस्थानों में प्रथम शुक्लध्यानरूपसे प्रवर्तमान होता हुआ पूर्वोक्त क्रमसे मोहनीय कर्मका क्षय करके उसके बाद क्षीणकषायभावको प्राप्तकर वहाँ दूसरे शुक्लध्यानरूप अग्निकेद्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियोंका पुनः वे उत्पन्न न हो जाँय इसलिये पूर्वोक्त विधिसे भस्मसाद्भावको प्राप्त करके स्वयम्भूरूप अपनी पर्यायपरिणत होता हुआ समस्त ज्ञेयरूपसे ज्ञानलक्ष्मीका अनुभव करके तत्पश्चात् क्रमसे असंख्यात गुणश्रेणिद्वारा कर्म प्रदेशों की निजरा करता हुआ भव्यजनों को हितका उपदेश देनेकेलिये विहार करके अन्त में विहारका उपसंहार करता हुआ जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रहती है तब तीर्थंकर केवली या सामान्य केवलो या समुद्धातसे या अन्य प्रकार चार अघाति कर्मों की स्थिति विशेषको समान करके तृतीय शुलध्यानकेद्वारा विशुद्ध योगरूप होनेसे अन्तर्मुहूर्तं कालतक अयोगिकेवली गुणस्थानमें अलेश्यपने और शोलके ईश्वरपनेको प्राप्तकर उसके बाद शेष कर्मोंका क्षय होनेसे भवबन्धनसे मुक्त होता हुआ, पहले प्राप्त किये गये ईंधनको प्रतिपक्षरहित वह्निके समान जलाकर पहले प्राप्त हुए भवका वियोग होनेसे, हेतुका अभाव होनेसे और उत्तर भवकी उत्पत्ति न होनेसे अनन्त संसार सम्बन्धी दुःखोंसे मुक्त होता हुआ तथा अन्तिम देह २५
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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