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________________ १९२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमखंध-अत्थाहियार कुलालचक्रे दोलायामिषौ चापि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात्कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता ।। १४ ।। मल्लेपसंगनिर्मोक्षायथा दृष्टाऽप्स्वलाचुनः । कर्मसंगविनिर्मोक्षात्तथा सिद्धगतिः स्मृताः ॥ १५ ॥ एरण्डयंत्रफेलासु बन्धच्छेदायथा गतिः । कर्मबन्धनविच्छेदात् सिद्धस्यापि तथेष्यते ॥ १६ ।। ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः । अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ।। १७ ॥ यथाऽधस्तियंगूध्वं च लोष्ठवाय्वग्निवीचयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते तथोवंगतिरात्मनाम् ॥ १८ ॥ अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः प्रतिघाताच्च प्रयोगाच्च तदिष्यते ॥ १९ ॥ अधस्तिर्यगावं च जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम् ॥ २० ॥ उत्पत्तिश्च विनाशश्च प्रकाशतमसोरिह । युगपद्भवतो यद्वत्तथा निर्वाणकर्मणोः ॥ २१ ॥ जिस प्रकार क्रम्हारके चक्रमें, हिंडोलामें और वाणमें पूर्वप्रयोग आदि कारणवश क्रिया होती है उसी प्रकार सिद्धगति जाननी चाहिये ॥१४॥ जिस प्रकार पानीमें सिट्रोके लेपका सम्बन्ध छूट जानेसे, तूंवडीकी ऊर्ध्वगति देखी जाती है उसी प्रकार कर्मोंके बन्धनके पूरी तरहसे विच्छिन्न हो जानेके कारण सिद्धोंकी ऊर्ध्वगति जाननी चाहिये ॥१५॥ एरण्डको बोंडोके फूटनेपर बन्धनके छिन्न होनेसे जिस प्रकार एरण्डके बीजको ऊर्ध्वगति होती है उसी प्रकार कर्मबन्धनका विच्छेद होनेसे सिद्धोंको भी उर्ध्वगति स्वीकार की गई है ।।१६।। जिनेन्द्रदेवने जीवोंको ऊर्ध्वगोरवधर्मवाला और पुग्दलोंको अधोगौरवधर्मवाला कहा है।।१७॥ जिस प्रकार ढेला, वायु और अग्निज्वालाकी क्रमसे नीचेकी ओर, तिरछी और ऊपरकी ओर स्वभावतः गति होती है उसी प्रकार आत्माओंको [मुक्त होनेपर] स्वभावतः ऊर्ध्वगति होती है ॥१८॥ इसलिये उन वस्तुओंमें जो गतिकी विकृति उपलब्ध होती है वह कर्मोंके कारण, प्रतिघातवश या प्रयोगवश कही जाती है ॥१९॥ कर्मोके विपाकके कारण जीवोंकी नीचेकी ओर, तिरछी और ऊपरको ओर [अनियमसे] गति होती है किन्तु जिनका कर्म क्षोण हो गया है ऐसे जीवोंको गति स्वभावसे ही ऊपरकी ओर होती है ।।२०।। ___ जिस प्रकार इस लोकमें प्रकाशको उत्पत्ति और अन्धकारका विनाश एक साथ होते हैं उसी प्रकार जीवका निर्वाण और कर्मोका विनाश एक साथ होते हैं ॥२१॥
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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