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शास्त्रार्थसंग्रहः]
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दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः ॥ २२ ॥ तन्वी मनोज्ञां सुरभिः पुण्या परमभास्वरा । प्राग्भारा नाम वसुधा लोकमूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥ २३ ॥ नृलोकतुल्यविष्कम्भा' सितच्छत्रनिभा शुभा । ऊर्ध्वं तस्या क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिता ।। २४ ॥ तादात्म्यादुपयुक्तास्ते केवलज्ञानदर्शने । सम्यक्त्वसिद्ध तावस्था हेत्वभावाच्च निष्क्रियाः ॥ २५ ॥ ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परः ।। २६ ।। संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ॥ २७ ॥ स्यादेतदशरीरस्य जन्तोनष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्यत्र मे शृणु ।। २८ ।।
जिस प्रकार बीजके दग्ध हो जानेपर उससे अंकुर सर्वथा उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्मरूपी बीजके जल जानेपर भवरूपी अंकूरकी उत्पत्ति नहीं होती ॥२२॥
लोकके अग्रभागमें जो पृथिवी अवस्थित है वह छोटी है, मनोज्ञ है. सुगन्धित है, पवित्र है और अत्यन्त देदीप्यमान है । उसका नाम प्राग्भार है ॥२३।।
मनुष्यलोकके समान विस्तारवाली है, सफेद छत्रके समान है और शुभ है। उस पृथिवीके ऊपर लोकके अग्रभागमें सिद्ध भगवान् विराजमान हैं ।।२४।।
तादात्म्य सम्बन्ध होनेके कारण वे सिद्ध परमेष्ठी केवलज्ञान और केवलदर्शनसे सदा उपयुक्त रहते हैं तथा सम्यक्त्व और सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हैं। इसके साथ वे हेतुका अभाव होने से परिस्पन्दरूप क्रियासे रहित अर्थात् निष्क्रिय हैं ॥२५॥
लोकके अग्रभागके ऊपर उन सिद्ध भगवन्तोंकी गति किस कारणसे नहीं होती ऐसी यदि आपकी पृच्छा है तो उसका धर्मास्तिकायका अभाव कारण है क्योंकि गतिका वह निमित्तकारण है ।। २६ ॥
सिद्धोंका सुख संसारसम्बन्धी विषयोंसे रहित, अविनाशीक, अव्याबाध और सर्वोत्कृष्ट होता है ऐसा परम ऋषियोंने कहा है ॥ २७ ॥
कोई पृच्छा करे कि शरीररहित और आठ कर्मोंका नाश करनेवाले मुक्तजीवके सुख केसे हो सकता है तो इस पृच्छाका उत्तर सुनो |२८|| १. आ० प्रतौ० अनन्तानन्तविष्कम्भा इति पाठः ।