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[ पच्छिमखंध -अत्याहिवार
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
लोके चतुष्विहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदना मावे विपाके मोक्ष एव च ।। २१ ।।
सुखो वह्निः सुखो वायुविषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ॥ ३० ॥ पुण्यकर्म विपाकाच्च सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षे सुखमनुत्तमम् || ३१ ॥ सुषुप्त्यवस्थया तुल्यां केचिदिच्छन्ति निर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावत्वात्सुखातिशयतस्तथा ।। ३२ ।।
श्रमक्लममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात् । मोहापत्तेर्विपाकाच्च दर्शनघ्नस्य कर्मणः ।। ३३ ॥
लोके तत्सद्दशोऽह्यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपमीयेत तद्येन तस्मान्निरुपमं स्मृतम् ।।३४।।
इस लोक चार अर्थों में सुखशब्द प्रयुक्त होता है। एक इष्ट विषयकी प्राप्ति में, दूसरा वेदनाके अभावमें, तीसरा साता वेदनीय आदि कर्मोके विपाकमें और चौथा मोक्षकी प्राप्तिमें ||२९|
अग्नि सुखरूप है, वायु सुखरूप है। यहाँ इष्ट विषयोंकी प्राप्तिमें सुख कहा जाता है । दुःखके अभाव होनेपर पुरुष कहता है कि मैं सुखी हूँ । यहाँ वेदनाके अभाव में सुख शब्दका प्रयोग हुआ है ||३०||
पुण्य कर्मके उदयसे इन्द्रियाँ और इष्ट पदार्थों की अनुकूलतासे सुख उत्पन्न होता है । यहाँ विपाक अर्थमें सुख शब्दका प्रयोग हुआ है। तथा कर्मक्लेशके अभावसे मोक्षमें सर्वोत्कृष्ट सुख होता है। यहाँ मोक्षमें सुख शब्दका प्रयोग हुआ है ||३१||
कितने ही पुरुष मानते हैं कि निर्वाण सुषुप्त अवस्थाके समान है किन्तु उनका वैसा मानना अयुक्त है, क्योंकि सांसारिक सुखकी प्राप्तिमें क्रिया देखी जाती है जबकि मोक्षसुख निष्क्रिय आत्माका धर्म है । सांसारिक सुखके प्राप्त होनेके बाद पश्चात्ताप एवं अकुलता देखो जाती है जबकि मोक्षसुख आकुलतासे रहित है ||३२||
सुषुप्त अवस्थाकी उत्पत्ति श्रम, खेद, नशा, व्याधि और कामके अधोन होनेसे और इनके सम्भव होनेसे होती है । तथा उसमें दर्शनावरण, निद्रादि कर्मोंके विपाकसे मोहकी उत्पत्ति होती रहती है ||१३||
समस्त लोकमें मोक्षसुखके समान अन्य कोई भी पदार्थ नहीं पाया जाता जिसके साथ उस मोक्षसुखकी उपमा दी जाय, इसलिये वह निरुपम ( उपमारहित) सुख है ||३४|