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________________ २२२ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १३४ २५ हानिवाले जीव सबसे....अवस्थान इन दोनों वाले जीव समान होते हानिवाले जीवों से विशेष अवस्थान वाले जीव सबसे हानिवाले जीव संख्यात गुणे हैं । अवस्थान वाले जीव सबसे १३४ २६ १३४ ३२ ३३ १३५ २२ - १३४ १३५ २३ १३५ २९ १४२ २८. अन्तिम काण्डक की १४३ ३२ अन्तिम काण्डक को हानिवाले जीव असंख्यात गुणे हैं । अवस्थान इन तीनों वाले जीव समान हैं । १४७ १० १४७ २९ १५० १८ २०९ १५ दो महिना में २३५ ३२ अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक २५४ ४ २५४ १६ २६४ २० २८० २७ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे असंखे० भागहागी असंख्यातभाग हानि का अन्तिम स्थिति-काण्डक की पर्याप्त २३५ ३३ वायुकायिक, वादर वायुकायिक पर्याप्त भवसि०- आहारए. भव्य और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के समय अन्तर्मुहूर्त ३७७ २१ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के ३७७ २८-३१ तथा स्त्रीवेद.... कर लेना चाहिये ४९९ ५ [ अज० ] ५०० १० . ४९९ १९ जीव के अप्रत्याख्यानावरण ४९९ २०-२१ नियम से........ या अजघन्य ? ४९९ ३४ असंख्यातगुणी कि ज० अज० ? अज०, शुद्ध हानि सबसे.... अवस्थान दोनों समान होते हानि से विशेष अवस्थान सबसे हानि संख्यात गुणी है । अवस्थान सबसे हान असंख्यातगुणी है । अवस्थान, ये तीनों समान हैं । काण्डक की काण्डक की [ जयधवला भाग ३ "यदि अन्तिम काण्डक की अन्तिम फालि ) के समय ही संख्यातभाग हानि होती तो अपगतवेदी के संख्यातभाग हानि का • अन्तर अन्तर्मुहूर्तं न कहते । संखे० भागहाणी संख्यातभाग हानि का स्थिति काण्डक की X अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त ( भवसि० सणि० आहारए भव्य, संज्ञी, और असंज्ञी के समय कम अन्तर्मुहू पञ्चेन्द्रियों के तथा स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवों का स्पर्श पञ्चेन्द्रियों के समान है । x ["तं तु" का अर्थं महाबंध पुस्तक ३ में यह किया है " जघन्य भी होती है अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है है तो एक समय से लेकर पल्य के असंख्यातवें भाग तक ] जीव के मिथ्यात्व और अप्रत्याख्यानावरण X असंख्यातवें भाग कि ज० अज० ( भय एवं जुगुप्सा के सम्बन्ध में [अज] पत्र ५०३, ५०४, ५०७, ५०९, ५१४ पर भी बढ़ाया गया है, सब सातों जगह ( अज०) लेखक से रहा गया हो ऐसा असंभव प्रतीत होता है । और ( अज० ) के बिना भी अर्थ ठीक हो जाता है )
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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