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________________ शुद्धिपत्र 1 पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ५०० ३० नियम से अजवन्य होती | जो ५०२ १९-२० स्थिति जघन्य होती है जो अपनी ५०३ १२ ५०४ ११ ५०४ १४ ५०९ १० ५०९ ३० ५०४ ३२-३३ नियम से अजघन्य होती है, जो अपनी सं० गुण भहिया ५१४ ४ ५१४ २१ ५३१ २३ ५३७ ९ कि० ज० अज० ५३७ जघन्य भी होती है अजघन्य भी । यदि अजघन्य होतो है तो वह अपनी ५०५ ३ असंखे गुणभहिया असंख्यातगुणी ५०५ १८ संख्यातगुणी ५०७ ८ तु किं० ज० अज० १, तं तु कि० ज० (अज० ) ? अज०, तं ५०७ २८ नियम से अजघन्य होती है । जघन्य भी होती है । अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह फिर भी वह कि० ज० [अज] ? अज०, किं० ज० अज० ? नियम से अजघन्य होती है फिर भी जघन्य भी होती है अजवन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह किं ज० अजह० ? तं तु जघन्य भी होती है, अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह अपनी असंख्यातगुणी X यत्स्थिति विशेष अधिक होती है संख्यातगुणी नहीं होती । यहाँ पर तो वह ही शब्द है जो पत्र ५३७ पंकि ११ व पत्र ५३८ पंक्ति १ में हैं जिनका अर्थ ५३५ पंक्ति ४ के अनुसार नीचे शुद्ध किया जा रहा है । यहाँ पर इसका कोई प्रयोजन नहीं । X ५३७ २७ इससे यत्स्थिति विभक्ति संख्यातगुणी है। ३१ पर यत्स्थिति संख्यातगुणी है । ५४३ १४ ५४३ ३३ वह कि ज० ( अजह० ) ? अजह० तं तु ० नियम से अजघन्य होती है । जो अपनी संख्यातगुणी ज० ट्टिदि० संखे० गुणा । कि ज ० ( अज० ) ? अज, नियम से अजवन्य होती है जो अपनी जघन्य भी होती है अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह अपनी ५३८ १५-१६ 11 २२३ 13 शुद्ध जवन्य भी होती है, अजघन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो चक्खु० ओहिदंस ० चक्षुदर्शनवाले, अवधि - स्थिति जघन्य भी होती है अजवन्य भी । यदि अजघन्य होती है तो वह अपनी ("तंतु” मूल में है । पत्र ५०१ १८४९ कहा है कि मिथ्यात्व की जघन्य के ) किं०ज० अज० ? ( सभय बारह कषाय, भय जुगुप्सा जवन्य भी होते हैं अर्थात् भय जुगुप्सा बारह कषाय तीनों एक साथ जघन्य भी होते हैं) किं ज० अज ० ? पर यह स्थिति विभक्ति संख्यातगुणी है, क्योंकि इसमें निषेकों के समयों का ग्रहण किया है। 11 नोट - पृष्ठ ५३५ पंक्ति ४ का जो अभिप्राय हैं वह ही यहाँ पर है, किन्तु यहाँ पर संक्षेप कर दिया है । किन्तु जो अर्थ ५३५ पंक्ति १९ में किया है वह यहाँ पर होना चाहिए । चक्खु ० [ अचक्खु०-] ओहिदंस ० चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधि
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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