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________________ १६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पच्छिमखंध-अत्याहियार तदणंतरभावित्तणियमदंसणादो। तदो से काले सत्थाणकेवलिभावेण दंडमुवसंहरइ । ताधे मूलसरीरपमाणेणाणूणादिरित्तेण केवलिजीवपदेसाणमवट्ठाणणियमदंसणादो । एवमेदे ओदरमाणस्स तिण्णि समया, चउत्थसमयस्स सत्थाणंतब्भावित्तदंसणादो । ३४८ अहवा तेण सह ओदरमाणस्स चत्तारि समया त्ति केसि पि वक्खाणकमो । तेसिमहिप्पाओ--जम्मि समये ठाइदण दंडमुवसहरइ सो वि समुग्धादंतब्माविओ चेवे त्ति तत्थ ओदरमाणयस्स पदरगदस्स पुव्वं व कम्मइयकायजोगो, कवाडगदस्स ओरालियमिस्सकायजोगो, डगदस्स ओरालियकायजोगो होदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थुवउज्जतीओ अज्जाओ-- दंडंप्रथमे' समये कवाटमथ चोत्तरे तथा समये । मंथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ १ ॥ संहरति पंचमे त्वंतराणि मंथानमथ पुनः षष्ठे। सप्तमके च कवाट संहरति ततोऽष्टमे दंडम् ।। २ ॥ तदो समुग्धादपरूवणा समत्ता भवदि । करता है, क्योंकि दण्डसमुद्धातका उसके अनन्तर ही होनेका नियम देखा जाता है । उसके बाद तदनन्तर समयमें स्वस्थानरूप केवलीपनेसे दण्डसमुद्धातका उपसंहार करता है। उस समय न्यूनता और अतिरिक्ततासे रहित मूलशरोरके प्रमाणसे केवलो भगवान्के जीवप्रदेशोंके अवस्थानका नियम देखा जाता है । इस प्रकार केवलिसमुद्धातसे उतरनेवाले केवलो जिनके ये तीन समय होते हैं, क्योंकि चौथे समयमें स्वस्थानमें अन्तर्भाव देखा जाता है। ६३४८ अथवा चौथे समयके साथ केवलिसमुद्धातसे उतरनेवाले केवलीके चार समय लगते हैं, ऐसा किन्हीं आचार्यों के व्याख्यानका क्रम है। उनका अभिप्राय है कि जिस समयमें कपाटसमुद्धातमें ठहरकर दण्डसमुद्धातका उपसंहार करता है वह भी समुद्धातमें अन्तर्भूत हो करना चाहिये, इसलिये समुद्धातमें उतरनेवाले प्रतरगत केवली जिनके पहलेके समान कार्मणकाययोग होता है, कपाटसमुद्धातको प्राप्त केवलोके औदारिक-मिश्रकाययोग होता है, तथा दण्डसमुद्धात को प्राप्त केवलीके औदारिक काययोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहां पर उपयुक्त पड़नेवाली आर्या गाथाएँ हैं केवली जिनके प्रथम समयमें दण्डसमुद्धात होता है, उत्तर अर्थात् दूसरे समयमें कपाटसमुद्धात होता है, तृतीय समयमें मन्थानसमुद्धात होता है और चौथे समयमें लोकव्यापी-समुद्धात होता है ॥ १॥ पांचवें समयमें लोकपूरण-समुद्धातका उपसंहार करता है, पुनः छठे समयमें मन्थानसमुद्धातका उपसंहार करता है सातवें समयमें कपाटसमुद्घातका उपसंहार करता है और आठवें समय में दण्डसमुद्धातका उपसंहार करता है ।। २ ।। इसके बाद केवलिसमुद्धात प्ररूपणा समाप्त होती है । १. आ० प्रतौ दण्डप्रथमे इति पाठः।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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