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________________ केवलिसमुम्बाद ] १५९ ६ ३४५ कुदो एदेसु चदुसु समुग्धादसमयेसु अप्पसत्त्थाणं कम्माणमणुसमयोवट्टणापादस्साणंतरपरूविदाणुभागषादवसेण परिप्फुडमुवलंभादो । * एगसमइओ हिदिखंडयस्स घावो । ६ ३४६ चदुसु वि समएसु पयट्टमाणस्स द्विदिपादस्स एयसमयेणेव णिवत्तीए अणंतरमेव पदुप्पाइयत्तादो। तम्हा आवज्जिदकरणाणंतरमेवं विहं केवलिसमुग्धादं कादूण णामागोदवेदणीयाणमंतोमुहुत्तायामेण द्विदि परिसेसेदि त्ति एसो एदस्स अइक्कंतासेससुत्तपबंधस्स समुदायत्थो । संपहि लोगावरणकिरियाए समत्ताए समग्यादपज्जायमुक्संहरेमाणो केवली किमक्कमेण उवसंहरिय सत्थाणे णिवदइ, आहो अत्थि कोवि ओदरमाणस्स कमणियमो ति आसंकाए णिरायरणट्ठमोदरमाणयस्स किंचि परूवणं सुत्तसूचिदं कस्सामो।। ६३४७ तं जहा-लोगपूरणमुवसंहरेमाणो पुणो वि मंथं करेदि; मंथ-परिणामेण विणा तदुवसंहाराणुववत्तीदो। लोगपूरणोवसंहारणातरमेव समजोगपरिणामो णस्सियण पुव्वफद्दयाणि सव्वाणि समयाविरोहेण उग्पादिदाणि त्ति दट्ठन्वाणि । पुणो मंथमवसंहरेमाणो कवाडं पडिवज्जदि; कवाडपरिणामेण विणा तदुवसंहारणाणुववत्तीदो। तदो अणंतरसमये दंडसमुग्धादेण परिणमिय कवाडमुवसंहरइ; तस्स ६३४५ क्योंकि इन चार समुद्धातके समयोंमें अप्रशस्त कर्मोंका प्रतिसमय अपवर्तनाघात अनन्तर कहे गये अनुभागके वशसे स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है । * तथा एक समयवाला स्थितिकाण्डकघात होता है । $ ३४६ चारों ही समयोंमें प्रवृत्तमान स्थितिघात एक समयकेद्वारा ही सम्पन्न हो जाता है यह अनन्तर ही कह आये हैं। इसलिये आवर्जितकरणके अनन्तर इस प्रकारके केवलिसमुद्धातको करके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोंको अन्तमुहूतं आयामरूपसे स्थितिको शेष रखता है। इस प्रकार यह अतिक्रान्त समस्त सूत्रप्रबन्धका समुदायरूप अर्थ है। अब लोकपूरण क्रियाके समाप्त होनेपर समुद्धातपर्यायका उपसंहार करनेवाला केवली जिन क्या अक्रमसे उपसंहार करके स्वस्थानमें निपतित होता है या उतरनेवालेका कोई क्रमनियम है; ऐसी आशंकाके निराकरणकेलिये उतरनेवालेका सूत्रसे सूचित होनेवाला किंचित् प्ररूपण करेंगे ३४७ यथा-लोकपूरण-समुद्धातका उपसंहार करता हुआ फिर भी मन्थ-समुद्धातको करता है, क्योंकि मन्थरूप परिणामके बिना केवलिसमुदातका उपसंहार नहीं बन सकता। तथा लोकपूरणसमुद्धातका उपसंहार करनेके अनन्तर ही समयोग परिणामको नाश करके सभी पूर्व स्पर्धक समयके अविरोधपूर्वक उद्घाटित हो जाते हैं ऐसा जानना चाहिये । पुनः मन्थसमुद्धातका उपसंहार करता हुआ कपाट-समुद्घातको प्राप्त होता है, क्योंकि कपाट परिणामके बिना उसका उपसंहार करना नहीं बन सकता। तत्पश्चात् अनन्तर समयमें दण्डसमुदातरूपसे परिणमकर कपाटसमुद्धातका उपसंहार
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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