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________________ १५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पच्छिमखंध-अत्थाहियार * संखेज्जगुणमाउादो । ९ ३४४ णाज्जवि आउट्ठिदीए समाणमेदेसिं ट्ठिदिसंतकम्मं जायदे, किंतु तत्तो संखेज्जगुणमेवेति णिच्छेयन्वं । एत्थ दुवे उवएसा अस्थि त्ति, केवि भणति । तं कथं ? महावाचयाणमज्जमंखुखमणाणमुवदेसेण लोगे पूरिदे आउगसमं णामागोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्मं ठवेदि । महावाचयाणं नागइत्थिखवणाणमुव एसेण लोगे पूरिदे णामागोदवेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तपमाणं होदि । होंतं पि आउगादो सखेज्जगुणमेत्तं ठवेदिति । णवरि एसो वक्खाणसंपदाओ चुण्णिसुत्तविरुद्धो, चण्णिसुते मुत्तकंठमेव संखेज्जगुणमाउआदो त्ति निट्ठित्तादो । तदो पवाइज्जतोव - एसी एसो चेव पहाणभावेणाव लंबेयव्वो, अण्णहा सुत्त पडिणियत्तावत्तदो । एवमेदेसिं दंड-कवाड-पदर- लोग पूरणसमुग्धादाणं सरूवविसेसं तत्थ कीरमाणकज्जभेदं च णिरूविय संपति इममेवत्थमुवसंहारमुहेण फुडीकरेमाणो उवरिमसुत्तद्दयमाह - * एदेसु चदुसु समएस अध्पसत्थकम्मंसाणमणुभागस्स अणुसमय श्रवणा । * शेष अघातिकर्मों की स्थिति आयुकर्मकी स्थितिसे संख्यातगुणी है । 8 ३४४ इस समय भी आयुकर्मकी स्थितिके समान इन अघातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म नहीं होता है, किन्तु उससे संख्यातगुणा ही होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये । यहाँ इस विषयमें दो उपदेश पाये जाते हैं । कितने ही आचार्य कहते हैं शका - - वह कैसे ? समाधान- महावाचक आर्यमक्षु क्षमणके उपदेशके अनुसार लोकपूरण समुद्धातके होनेपर आयुकर्म की स्थिति समान नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्कर्म स्थापित करता है । महावाचक नागहस्ति क्षमणके उपदेशके अनुसार लोकपूरण समुद्धात होनेपर नाम, गोत्र और वेद कर्मका स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । इतना होता हुआ भी आयुकर्म की स्थिति से संख्यातगुणा स्थापित करता है । परन्तु यह व्याख्यान - सम्प्रदायचूर्णिके विरुद्ध है, क्योंकि चूर्णिसूत्र में स्पष्टरूपसे ही आयुकर्मकी स्थितिसे शेष अघातिकर्मोंकी संख्यातगुणी निर्दिष्ट की है । इसलिये प्रवाह्यमान उपदेश यही प्रधानरूपसे अवलम्बन करने योग्य है, अन्यथा सूत्रके प्रतिनियत होनेमें आपत्ति आती है । इस प्रकार इन दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातोंके स्वरूपविशेषका और वहाँ किये जानेवाले कार्यभेदों का निरूपण करके अब इसी अर्थको उपसंहाररूपसे स्पष्ट करते हुए आगे के दो सूत्रोंको कहते हैं * केवलिसमुद्धातके इन चार समयों में अप्रशस्त कर्मप्रदेशोंके अनुभाग की अनुसमय अपवर्तना होती है ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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