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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ खवणाहियारचूलिया * जाव ण दुमत्थादो तिन्हं घादीण वेदगो होइ । अध णंतरेण खइया सव्वण्हू सव्वदरिसी य ॥ १२ ॥ $ ३२३ यावत् खलु छमस्थ पर्यायान्न निष्क्रामति तावत्त्रयाणां घातिकर्मणां ज्ञानदृगावरणान्तरायसंज्ञितानां नियमाद्वेदको भवति, अन्यथा छद्मस्थभावानुपपत्तेः । अथानन्तरसमये द्वितीयशुक्लध्यानाग्निना निर्दग्धाशेषघातिकर्मद्र ुमगहनः छद्मस्थपर्यायान्निष्क्रान्तस्वरूपः क्षायिकों लब्धिमवष्टभ्य सर्वज्ञः सर्वदर्शी च भूत्वा विहरतीत्ययमत्र गाथार्थसंग्रहः एवमेदासिं बारसहं सुत्तगाहाण मत्थे विहासिय समत्ते तदो चरितमोक्खवणाए चूलिया समत्ता भवदि । तदो चरित्त मोहक्खवणासण्णिदो कसायपाहुडस्स पारसमो अत्थाहियारो समप्यदित्ति जाणावणट्टमुव संहारवक्कमाह- १४४ * चरित्त मोहक्खवणा त्ति समत्ता । $ ३२४ एवं कसा पाहुडसुत्ताणि सपरिभासाणि समत्ताणि । सव्वसमासेण सदतीसाणि । एवं कसा पाहुडं समत्तं । * यह क्षीणकषाय गुणस्थानवाला क्षपक जब तक छद्मस्थ अवस्थासे नहीं निकलता है तब तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिकर्मों का वेदक होता है । तदनन्तर उक्त तीन घातिकर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है ||१२|| ९ ३२३ यह क्षपक जबतक छद्मस्थ पर्यायसे नहीं निकलता है तबतक वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय संज्ञावाले इन तीन घातिकर्मों का नियमसे वेदक होता है, क्योंकि अन्य प्रकार से छद्मस्थपना नहीं बन सकता है। इसके अनन्तर समय में द्वितीय शुक्लध्यानरूपी अग्नि समस्त घातिकर्मरूपी वृक्षोंके वनको जलाकर और छद्मस्थ पर्यायसे निकलकर क्षायिकी लब्धिका अवलम्बनकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर विहार करता है, यह यहाँपर गाथाका समुच्चयरूप अर्थ है । इसप्रकार इन बारह सूत्रगाथाओंके अर्थकी विभाषा करके समाप्त होनेपर तदनन्तर चारित्रमोहक्षपणा नामक अनुयोगद्वारको चूलिका समाप्त होती है। इसप्रकार चारित्रमोहक्षपणा नामक कषायप्राभृतका पन्द्रहवाँ अधिकार समाप्त होता है, इस बातका ज्ञान करानेकेलिये उपसंहार वचनको कहते हैं * इस प्रकार चारित्रमोहक्षपणा नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । ९ ३२४ इसप्रकार परिभाषाओंके साथ कषायप्राभृतके सूत्र समाप्त हुये । योग २३३ है । इसप्रकार कषायप्राभृत समाप्त हुआ । उन सबका
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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