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________________ १०७ गा० २३१ ] * कोहेण उवढिदो जम्हि कोधं खवेदि मायाए उवट्ठिदो तम्हि अस्सकएणकरणं करेदि । $२५६ कोहोदयक्खवगस्स कोहतिण्णिसंगहकिट्टीणं खवणद्धाए एसो मायोदयक्खवगो दोण्हं संजलणाणमस्सकण्णकरणविहाणमपुव्वफद्दयेहिं सह पयट्टावेदि त्ति वृत्तं होइ । कुदो एवं विहो किरियाविवज्जासो एत्थ जादो त्ति णासंका कायव्या, णाणाजीवविसयाणमणियट्टिपरिणामाणमभिण्णसरूवत्ते वि कसायोदयभेदसहकारिकारणवसेण तहाविहभेदसिद्धीए बाहाणुवलंभादो । तदो चउत्थभेदं णाणत्तमवहारेयवमिदि सिद्धं । ____ * कोहेण उवट्ठिदो जम्हि माणं खवेदि मायाए उवढिदो तम्हि किट्टीअो करेदि । $ २५७ कोहोदयक्खवंगस्स माणतिण्णिसंगहकिट्टीणं खवणद्धाए एदस्स खवगस्स माया-लोभमंजलणविसयाणं छण्हं संगहकिट्टीणं णिवत्तणसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो । तदो पंचमभेदं णाणत्तमिदि सिद्धं । * क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ जिस कालमें क्रोधका क्षय करता है, मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें अश्वकर्णकरण करता है। $२५६ क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके क्रोधसंज्वलनकी तीन संग्रहकृष्टियोंकी क्षपणाके कालमें यह मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलनके अश्वकर्णकरणकी विधिको अपूर्वस्पर्धकोंके साथ प्रवर्ताता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यहाँ पर इस प्रकारको क्रियाको विपरीतता कैसे हो गई ? समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि नाना जीवोंविषयक अनिवृत्तिकरणके सम्बन्धी परिणामोंके अभिन्नस्वरूप होनेपर भी कषायोंके उदयमें भेदसम्बन्धी सहकारी कारणोंके वशसे उस प्रकारके भेदकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं पायी जाती। इस कारण चौथा भेद नाना रूप जानना चाहिये, यह सिद्ध होता है। * क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस कालमें मानसंज्वलनका क्षय करता है, मायासंज्वलनसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें कृष्टियोंको करता है। $ २५७ क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके मानसंज्वलनको तीन संग्रहकृष्टिकी क्षपणाके कालमें इस क्षपकके माया और लोभसंज्वलनविषयक छह संग्रहकृष्टियोंके रचनाकी सिद्धि बिना बाधाके उपलब्ध होती है । इसलिये यह पाँचवों विभिन्नता है, यह सिद्ध हुआ ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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