SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा समवद्विदस्सेदस्स खवगस्स पढमट्टिदी होदि त्ति तप्पमाणावच्छेदो एदेण सुत्तेण कदो दहव्यो । किं पुण कारणमेम्महंती एदस्स पढ मट्टिदी जादा त्ति णासंकणिज्ज, एदिस्से पढमहिदीए अभंतरे कीरमाणकज्जमेदाणमेत्तियमेत्तकालेण विणा संपुण्णभावाणुववत्तीदो। संपहि एत्थ कीरमाणकज्जभेदाणं णाणत्तगवेसणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह । * कोहेण उवहिदो जम्हि अस्सकरणकरणं करेदि मायाए उवट्टिदो तम्हि कोहं खवेदि। $२५४ सुगमं । * कोहेण उवहिदो जम्हि किवीश्रो करेदि, मायाए उवट्ठिदो तम्हि माणं खवेदि। ६२५५ सुगममेदं पि सुत्तं । कोह-माण-संजलणाणमेत्थ फद्दयसरूवेणेव कोहोदयखवगस्स अस्सकण्णकरण-किट्टीकरणद्धासु जहाकम खवणसिद्धीए परमागमुज्जोवबलेण सुपरिणिच्छिदत्तादो। श्रेणिपर चढ़े हुए इस क्षपककी प्रथम स्थिति होती है। इस प्रकार उस अर्थात् मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी प्रथमस्थितिके प्रमाणका इस सूत्रद्वारा कथन किया गया जानना चाहिये। शंका--परतु मायासंज्वलनकी इतनी बड़ी प्रथमस्थिति हो गई, इसका क्या कारण है ? ___ समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस प्रथम स्थितिके भीतर किये जानेवाले कार्यभेद इतने कालके बिना पूर्णताको नहीं प्राप्त हो सकते। अब यहाँ पर किये जानेवाले कार्य-भेदोंकी विभिन्नताका अनुसन्धान करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं __* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक जिस कालमें अश्वकर्णकरण करता है, मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक उस कालमें क्रोधसंज्वलनका क्षय करता है । ६२५४ यह सूत्र सुगम है। * क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक जिस कालमें कृष्टियोंको करता है, मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला क्षपक उस कालमें मानसंज्वलनका क्षय करता है। ६२५५ यह सूत्र भी सुगम है । क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अश्वकर्णकरण और कृष्टिकरण इन दोनों में जितना समय लगता है; मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके उतने कालमें क्रमसे क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलनका स्पर्धकरूपसे क्षय सिद्ध होता है यह परमागमके उद्योतके बलसे अच्छी तरह निश्चित होता है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy