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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा ६ १२८ 'संछुहदि अण्णकिट्टि' एवं भणिदे णिरुद्धसंगहकिट्टि मण्णकिट्टीए उवरि संकामेमाणो कथंभूदेसु ठिदिअणुभागेसु वट्टमाणाणं णिरुद्ध संगहकिट्टि संछुहदि किमविसेसेण सव्वाओ द्विदीओ अणभागकिट्टीओ च अण्णकिट्टीसरूवेण संकामेदि आहो अत्थि कोवि तत्थ विसेससं भवो त्ति एसा विदियपुच्छा द्विदि-अणुभागसंकमाणं पवुत्तिविसेसमुवेक्खदे। द्विदि-अणुभागबंधविसयो वि पुच्छाणिद्दे सो एत्थेव णिलीणो वक्खाणेयब्वो; सुत्तस्सेदस्स देसामासयमावेण पवुत्ति अब्भुवगमादो । तदो णिरुद्ध संगहकिट्टीए खविज्जमाणाए द्विदि-अणुभागोदीरणा तस्विसयोक्कट्टणा परपयडिसंकमो ट्ठिदिअणुमागबधो च कथं पयर्टेति त्ति एसो एर तत्थसंगहो । ६ १२९ ‘से काले तासु अण्णासु' ए भणिदे णिरुद्धसमये जासु द्विदीसु अणुभागकिट्टीस च बंधोदीरणसंकमा संवत्ता कि तासु चेव से काले पयदृति आहो तदो अण्णास पयद॒ति त्ति एसो तदिओ पुच्छाणिद्देसो । एदेण डिदि-अणुभाग-संकमोदीरणाणं बंधसहगदाणं समयं पडि पवुत्ति विसेसो केरिसो होदि त्ति एवंविहो अत्थविसेसो सूचिदो दट्ठव्वो । एदेणेव अण्णो वि पयदोवजोगिओ अत्थविसेसो देसामासयभावेण सूचिदो त्ति वक्खाणेयव्वा । संपहि एदिस्से तदियमूलगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो तत्थ पडिबद्धाणं भासागाहाणमियत्तावहारणमुत्तरं सुत्तमाह-- $ १२८ 'संछुहदि अण्णकिट्टि' ऐसा कहने पर विवक्षित संग्रह-कृष्टिका अन्य कृष्टि में संक्रम करता हुआ किस प्रकारको स्थिति और अनुभागमें विद्यमान उनका विवक्षित संग्रह कृष्टिका संक्रमण करता है, क्या सामान्यसे सब स्थितियों और अनुभाग-कृष्टियोंको अन्यकृष्टिरूपसे संक्रमित करता है या इस विषयमें कोई विशेष सम्भव है। इस प्रकार यह दूसरी पृच्छा स्थिति, अनुभाग और संक्रमकी प्रवृत्ति विशेषकी अपेक्षा करता है तथा स्थिति, अनुभाग और बन्धविषयक पृच्छाका निर्देश भो इसोमें लोन है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि इस सूत्रको देशामर्षकरूपसे प्रवृत्ति स्वीकारको गई है। अतः विवक्षित संग्रहष्टिकी क्षपणा होते समय स्थिति, अनुभाग और उदारणा तथा तद्विषयक अपकर्षण, परप्रकृतिसंक्रम, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध किस प्रकार प्रवत्त होते हैं ? इस प्रकार यह प्रकृतमें सूत्रका समुदायरूप अर्थ है । ६ १२९ ‘से काले तासु अण्णासु' ऐसा कहनेपर विवक्षित समय में जिन स्थिति और अनुभाग कृष्टियोंमें बन्ध, उदोरणा और संक्रम प्रवृत्त हुए हैं क्या उन्होंमें अनन्तर समय में प्रवृत्त रहते हैं या उनसे अन्यमें ये प्रवत्त रहते हैं ? इस प्रकार यह तोसरा पच्छानिर्देश है। इसके द्वारा बन्ध के होनेवाले स्थिति, अनुभाग, संक्रम और उदीरणाका प्रत्येक समयमें प्रवृत्ति विशेष किस प्रकारका होता है, इस तरह इस प्रकारका अर्थविशेष सूचित किया गया जानना चाहिये । इसीके द्वारा अन्य भी प्रकृतमें उपयोगी अर्थ विशेष देशामर्षकरूपसे सूचित किया गया है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । अब इस तीसरी मूल गाथाके अर्थको विभाषा करते हुए उससे सम्बन्ध रखनेवाली भाष्यगाथाओंकी संख्याका निश्चय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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