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________________ १७१ अपुन्वफद्दयकरणं ] पमाणत्तमणुगंतव्वं । सुत्तणिद्देसेण विणा कधमेदं परिच्छिज्जदि ति णासंकणिज्ज सुत्ताविरुद्धपरमगुरुसंपदायबलेण तहाविहत्थ सिद्धीए विरोहाभावादो, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायाच्च । एवमेदीए परूवणाए अंतोमुहुत्तमेत्तकालमपुव्वफद्दयकरणद्धमणुपालेमाणस्स तदद्धाचरिमसमए अपुवफद्दयकिरिया समप्पइ । णवरि अपुव्वफद्दयाणं किरियाए णिट्ठिदाए वि पुवफद्दयाणि सव्वाणि तहा चेव चिट्ठति, तेसिमज्ज वि विणासाभावादो। एत्थ सव्वत्थ हिदि-अणुभागखंडयाणं गुणसेढीणिज्जराए च परूवणा पुवुत्तेणेव कमेणाणमग्गियव्वा जाव सजोगिकेवलिचरिमसमयो ति ताव तेसिं पवुत्तीए पडिबधाभावादो। तदो अपुव्वफद्दयकरणं समत्तं । एवमंतोमुहुत्तमपुव्वफद्दयकरणद्धमणपालिय तदो परमंतोमुहुत्तकालं पुवापुवफदयाणि ओकड्डियण जोगकिट्टीओ णिवत्तेमाणस्स परूवणापबंधमुत्तरसुत्ताणुसारेण वत्तहस्सामो । * एत्तो अंतोमुहुत्तं किटीओ करेदि । $ ३७२ पूर्वापूर्वस्पर्द्धकस्वरूपेणेष्टकापंक्तिसंस्थानसंस्थितं योगमुपसंहृत्य सूक्ष्मसूक्ष्माणि खंडानि निर्वर्तयति, ताओ किट्टीओ णाम वुच्चंति । अविभागपडिच्छेदुत्तर शंका--सूत्रमें ऐसा कथन तो नहीं किया गया है । इसके बिना यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--यह आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सूत्रके अविरुद्ध परम गुरुके सम्प्रदायके बलसे उस प्रकारसे अर्थको सिद्धिमें विरोधका अभाव है और व्याख्यानसे विशेषका ज्ञान होता है ऐसा न्याय है। इस प्रकार इस प्ररूपणाके अनुसार अन्तमुहूर्तप्रमाण काल तक अपूर्व स्पर्धकोंको करनेके कालका पालन करनेवाले जीवके उस कालके अन्तिम समयमें अपूर्व स्पर्धकक्रिया समाप्त होती है। इतनी विशेषता है कि अपूर्व स्पर्धकोंकी क्रियाके समाप्त होनेपर भी पूर्वस्पर्धक सबके सब उसीप्रकार अवस्थित रहते हैं, क्योंकि उनका अभी भी विनाश नहीं हुआ है। यहाँ सर्वत्र स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंका तथा गुणश्रेणिनिर्जराको कथन पहले कहे गये क्रमसे ही जानना चाहिये, क्योंकि संयोगिकेवलीके अन्तिम समय तक उन तीनोंकी प्रवृत्ति होनेमें प्रतिबन्धका अभाव है। इसके बाद अपूर्व स्पर्धककरणविधि समाप्त हुई। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक अपूर्व स्पर्धककरणके कालका पालनकर उसके बाद अन्तमहर्त काल तक पूर्वस्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकोंका अपकर्षण करके योगसम्बन्धी कृष्टियोंकी रचना करनेवाले सयोगिकेवली जिनके आगेके प्ररूपणाप्रबन्धके अनुसार बतलावेंगे * इसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टियोंको करता है। ६३७२ पूर्व और अपूर्वस्पर्धकरूपसे ईटोंकी पंक्तिके आकारसे स्थित योगका उपसंहार करके सूक्ष्म-सूक्ष्म खण्डोंकी रचना करता है, उन्हें कृष्टियां कहते हैं । अविभागप्रतिच्छेदोंके आगे क्रमवृद्धि १. प्रेसकापीप्रती-फयाणि इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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