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________________ १७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छिमाखंध-अत्थाहियार पढमसमयणिवत्ति दाणमपुवफयाणं जं जहण्णफद्दयं तदादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणे णिक्खिवदि। तत्तो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं । एवं तदियादिसमयेसु वि ओकडिडज्जमाणजीवपदेसाणमेसेव णिसेगपरूवणा एदीए दिसाए णेदव्वा । संपहि एदेण सव्वेण वि काले णिव्वत्तिदाणमपुव्वफद्दयाणं पमाणमेत्तियमिदि पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * अपुष्वफद्दयाणि सेढीए असंखेजदिभागो । ६ ३६९ सुगममेदं । * सेढिवग्गमलस्स वि असंखेज्जदिभागो । $ ३७० किं कारणं ! एत्तो असंखेज्जगुणं पुव्वफहयाणं पि सेढिपढमवग्गमूलस्सासंखेज्जदिभागएमाणत्तविणिण्णयादो। संपहि पुचफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागमेत्तमेदेसि जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * पुवफहयाणं पि असंखेजदिभागो सव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि । $ ३७१ गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि पुव्वफद्दयेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तगुणहाणीसु संभवंतीसु तत्थेयगुणहाणिट्ठाणंतरफदएहितो वि एदेसिमसंखेज्जगुणहीण स्पर्धकोंमें जो जघन्य स्पर्धक है उसकी आदिवर्गणामें असंख्यातगुणहीन जीवप्रदेशोंको निक्षिप्त करता है। उससे आगे सर्वत्र विशेषहीन जीवप्रदेश निक्षिप्त करता है। इसी प्रकार तृतीयादि समयोंमें भी अपकर्षित किये जानेवाले जीवप्रदेशोंकी यही निषेकप्ररूपणा इसी रूपसे जाननी चाहिये । अब इस सब कालकेद्वारा रचे गये अपूर्व स्पर्धकोंका प्रमाण इतना होता है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * ये सब अपर्व स्पर्धक जगश्रेणिके असंख्यातवें मागप्रमाण हैं । ६ ३६९ यह सूत्र सुगम है। * वे सब अपूर्व स्पर्धक जगश्रेणिके वर्गमूलके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। ६ ३७० क्योंकि इनसे असंख्यातगुणे पूर्वस्पर्धकोंके भी जगश्रेणिके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाणपनेका निर्णय होता है । अब ये अपूर्व स्पर्धक पूर्व स्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं इस बातका ज्ञान करानेवाले आगेके सूत्रको कहते हैं * ये सम्पूर्ण अपूर्वस्पर्धक पूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । ६३७१ यह सूत्र गतार्थ है। इतनी विशेषता है कि पूर्व स्पर्धकोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानियाँ सम्भव हैं। उनमें एक गुणहानिस्थानमें जितने स्पर्धक हैं उनसे भी ये अपूर्वस्पर्धक असंख्यातगुणहीन प्रमाण जानने चाहिये ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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